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५२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार क्योंकि बन्ध-मोक्ष दो पूर्व-उत्तर क्षणों में अन्वय रूप से रहने वाले आत्मा में ही सम्भव है और विज्ञान क्षणिक है।' बन्ध-मोक्ष के अभाव में अनित्य भावनाओं का उपदेश निरर्थक सिद्ध हो जाता है। हरिभद्र' ने भी यही कहा है। इस प्रकार पूर्व विवेचन से स्पष्ट है कि आत्म-स्वरूप के सम्बन्ध में बौद्ध दर्शन में एकरूपता नहीं है। विभिन्न सम्प्रदायों ने इस विषय में विभिन्न परिकल्पनाएँ की । (ग) न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मसिद्धि : ___गौतम ऋषि ने न्यायसूत्र में तथा कणाद ऋषि ने 'वैशेषिक सूत्र' में आत्मा का अस्तित्व अनुमान प्रमाण से सिद्ध किया है । प्राणापान, निमेषोन्मेष, जीवन, इन्द्रियान्तर विकार, सुख-दु:ख, इच्छा, द्वेष, संकल्प आदि को आत्मा के लिंग कह कर, इन्हीं से आत्मास्तित्व सिद्ध किया है । इसी प्रकार न्यायसूत्रकार ने इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख दिनिर्णयात्मक ज्ञान हेतुओं के द्वारा आत्मा की सत्ता का अनुमान किया है। गौतम ऋषि अनुमान प्रमाण के अलावा शास्त्रीय प्रमाण भी देते हैं ।५ न्यायदर्शन में मानस प्रत्यक्ष के द्वारा भी आत्मा की सत्ता सिद्ध की गयी है लेकिन वैशेषिक दर्शन में कणाद और प्रशस्तपाद आत्मा का मानस प्रत्यक्ष नहीं मानते हैं । उपर्युक्त आत्म-सत्ता साधक तर्कों का विस्तृत विवेचन करना सम्भव नहीं है। (घ) सांख्य-दर्शन में आत्मसिद्धि :
सांख्य-दर्शन में आत्मास्तित्व सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क दिये गये हैं। ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में निम्नांकित अनुमान दिये हैं :
१. संघात् पवार्थत्वात्-अर्थात् समुदाय रूप जड़ पदार्थ दूसरों के लिए होते हैं स्वयं के लिए नहीं। प्रगति और उसके समस्त कार्य संघात रूप होने से जिसके लिए हैं, वही पुरुष है ।
१. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग १, पृ० ८४२ २. शास्त्रवार्तासमुच्चय, ४१२ ३. वैशेषिक सूत्र, ३।२।४-१३ ४. न्यायसूत्र, ३।१।१० ५. भारतीय दर्शन : डा० राधाकृष्णन्, भाग २, पृ० १४५ ६. देखें-भारतीय दर्शन : संपादक डा० न० कि० देवराज, पृ० ३११ ७. सांख्यकारिका, १७; सांख्यप्रवचन सूत्र, ११६६, योगसूत्र, ४।२४ ८. संघात्परार्थत्वात् त्रिगुणादिविपर्ययादधिष्ठानात् ।।
पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावात् कैवल्यार्थ प्रवृत्तश्च ।।-सांख्यकारिका ११
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