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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ५१ भावात्मक रूप से वर्णन नहीं किया जा सकता । चन्द्रकीति ने कहा है कि आत्मा जैसे तत्त्व की सत्ता नहीं है। चतुःशतक में अस्तित्व का निराकरण किया गया है।
समीक्षा : अन्य भारतीय दार्शनिकों की भाँति जैन दार्शनिक भी शून्यात्मवादियों के सिद्धान्त से सहमत नहीं हैं । आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंकदेव, हरिभद्र, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र और मल्लिषण आदि ने इस मत की विस्तृत तार्किक मीमांसा की है ।
विज्ञप्तिमात्रतावाद : आत्मस्वरूप के विषय में अन्तिम कल्पना योगाचार महायान बौद्ध दार्शनिकों की है। विज्ञानवादियों के अनुसार बाह्य पदार्थ वास्तविक नहीं है। केवल एकमात्र निरंश, निरन्वय और क्षणिक विज्ञान ही चरम तत्त्व है। उन्होंने आत्मा को मात्र विज्ञप्ति रूप बताया । विज्ञान की सन्तान के अतिरिक्त आत्म-तत्त्व नामक कोई पदार्थ नहीं है जो परलोक रूप फल का भोक्ता हो ।
समीक्षा : स्वामी कात्तिकेय ने विज्ञानाद्वैतवाद के निराकरण में कहा है कि ज्ञान मात्र को मानने से ज्ञेय के अभाव में ज्ञान भी व्यर्थ हो जाएगा। क्योंकि ज्ञान का अर्थ है जानना, लेकिन जब ज्ञेय ही नहीं है तब जानेगा क्या? अतः ज्ञेयविहीन ज्ञान की कल्पना ठीक नहीं है ।" अमितगति ने इस मत की समीक्षा करते हुए कहा कि यदि विज्ञान के अतिरिक्त 'आत्मा' नहीं है तो स्मरणादि का अभाव हो जाएगा और स्मरणादि के अभाव में व्यवहार नष्ट हो जाएगा। ज्ञान प्रवाह को आत्मा मानने पर किये गये कर्मों का नाश और नहीं किये गये कर्मों के फल भोगने का दोष भी आता है। प्रभाचन्द्राचार्य ने न्यायकुमुदचन्द्र, और प्रमेयकमलमार्तण्ड में इस मत की विस्तृत समीक्षा की है। उनका एक तर्क यह है कि विज्ञान संतानात्मवाद में बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नष्ट हो जाएगी,
१. माध्यमिक कारिका, ९।३ । विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य माध्यमिक
कारिका वृत्ति, पृ० १६८ आदि । २. चतुःशतकः आर्यदेव, दशम प्रकरण ३. त्रिशिका, १७ ४. मिलिन्दपञ्हो, ४।३८-४२ ५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा : भा० २४७-४९ ६. श्रावकाचार, ४।२४ ७. षट्दर्शनसमुच्चय, गुणरत्न टीका, पृ० २९६
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