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५० : जैनदर्शन में आत्म-विचार परिवर्तित होते हुए भी उसकी अवस्थाओं का परिवर्तन होता है, द्रव्य अपरिवर्तनीय है।' उनका तर्क है कि यदि चित्त त्रैकालिक न होता तो भगवान् बुद्ध अतीत और अनागत 'रूप' से निरपेक्ष होने का उपदेश नहीं देते । अतः वर्तमान की भाँति अतीत अनागत काल भी सत्य है । इसके बाद सौत्रान्तिक सम्प्रदाय ने कालिक धर्मवाद का विरोध किया और चित्त-चैतसिकों को पुनः वर्तमानिक बतलाया । अपने सिद्धान्त के समर्थन में सौत्रान्तिकों ने कहा कि बुद्ध ने क्षणिकवाद का उपदेश दिया था। धर्मों को त्रैकालिक मानने से नित्यता सिद्ध हो जाती है।
समीक्षा:--यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा की सत्ता का निराकरण करने के कारण पुद्गल नैरात्म्यवादियों का शाश्वत आत्मवादियों के आक्षेपों और तर्कों के सामने टिकना कठिन हो रहा था । इसलिए बौद्ध धर्म-दर्शन के विभिन्न सम्प्रदाय अपनी स्थिति ठीक रखने के लिए तथा पुनर्जन्म, बन्ध और मोक्ष की बुद्धिग्राह्य व्याख्या करने के लिए सिद्धान्तों को अपने ढंग से प्रस्तुत करने लगे थे। धर्मों को त्रैकालिक मानना आत्म-सिद्धान्त मानने जैसा ही है ।
धर्म नरात्म्य-निःस्वभाव या शून्यवाद : यह महायान बौद्ध दर्शन का प्रमुख सम्प्रदाय है । भगवान् बुद्ध का अनात्मवाद इस सम्प्रदाय में शून्यता में परिवर्तित हो गया । नागार्जुन ने माध्यमिक कारिका में कहा है कि वस्तु चतुष्कोटि विनिर्मक्त और अनभिलाप्य है। हम वस्तु को न अस्ति रूप कह सकते हैं और न नास्ति रूप, न उभय रूप और न अनुभय रूप । इन चार कोटियों में से वस्तु का वर्णन किसी कोटि द्वारा नहीं किया जा सकता है। यही शून्यवाद कहलाता है । तत्त्व अनिवर्चनीय होने से कहा गया कि संसार शून्य है, क्योंकि तत्त्व का अभाव है । संसार की समस्त व्यावहारिक वस्तुएँ प्रतीत्य समुत्पन्न होने के कारण उनका वास्तविक अस्तित्व नहीं माना जा सकता है । पारमार्थिक दृष्टि से विचारने पर सभी अनुत्पन्न हैं। इसलिए उन्हें धर्म-नैरात्म्य, स्वभावशून्य, निःस्वभाव या अनात्मन् कहते हैं। अतः संसार की वस्तुओं के विषय में १. अभिधर्मकोश, ५।२५ । तत्त्वसंग्रह का०, १७८५ २. बौद्ध दर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ६३९ ३. देवेन्द्र मुनि शास्त्री का भी यही मत है। देखें, अनदर्शन-स्वरूप और
विश्लेषण, ५० ९८ ४. न सन्तासन् न सदसन् न चाप्यनुभयात्मकम् ।
चतुष्ट कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिकाः विदुः ।।-मारतीय दर्शन संग्रहडा० नन्दकिशोर देवराज, पृष्ठ १८८ पर उद्धृत ।
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