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________________ भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ४९ दोष आता है। भगवान् बुद्ध ने पुद्गल को अव्याकृत इसलिए कहा है क्योंकि वे बतला देना चाहते थे कि पुद्गल प्रज्ञप्ति मात्र है। जहाँ कहीं पुद्गल का उपदेश दिया है वह नास्तिक्य के निराकरण के लिए दिया है । अतः सिद्ध है कि पुद्गल का अस्तित्व नहीं है । __ वात्सीपुत्रीय : यदि पुद्गल का अस्तित्व नहीं है तो भगवान् बुद्ध ने संयुक्त निकाय में भार, भारहार का उपदेश क्यों दिया ? समाधान : उपर्युक्त भगवान् का उपदेश व्यर्थ भी नहीं है क्योंकि भारहार का तात्पर्य स्कन्ध समुदायलक्षण वाला पुद्गल प्रज्ञप्ति मात्र कहा है। इसके अतिरिक्त अन्य नित्य द्रव्य आत्मा को भारहार नहीं कहा है। अभिधर्म कोश' में भी आचार्य वसुबन्धु ने पुद्गलास्तिवाद का विस्तृत खण्डन किया है। इस विवेचन से ऐसा लगता है कि शाश्वत आत्मवादी विचारधारा को मानने वाले कुछ लोग बौद्ध संघ में सम्मिलित हो गये होंगे और उन्होंने नई दृष्टि से पुद्गलवाद (आत्मवाद) की प्रतिष्ठा करने का प्रयास किया होगा। लेकिन यह सिद्धान्त अधिक समय तक न टिक सका। ___ त्रैकालिक धर्मवाद और वर्तमानिक धर्मवादः-प्रस्तुतवाद सर्वास्तिवादियों (हीनयानियों) का है । वैभाषिकों ने मनुष्य के व्यक्तित्व का विश्लेषण करके कहा कि नित्य, कर्ता-भोक्ता रूप आत्मा का अस्तित्व नहीं है। आरमा एक प्रज्ञप्तिमात्र है। ‘पदार्थ' को 'चित्' शब्द से अभिहित करके उसे संस्कृत-असंस्कृत, साधारण-असाधारण आदि धर्मों में विभक्त करके उसका विस्तृत निरूपण किया। क्षणिकवाद सिद्धान्त में निष्ठा रखते हुए भी प्रत्येक चित्त और चैतसिक को अपने ढंग से त्रैकालिक सिद्ध किया।६ तत्त्वसंग्रह में इस सिद्धान्त का विवेचन विस्तृत रूप से किया गया है। एक उदाहरण के द्वारा वहाँ त्रैकालिक धर्मता के विषय में विवेचन किया गया है कि जिस प्रकार सोने के कुण्डल को तोड़ कर कड़ादि बनाने पर सोना नष्ट नहीं होता है सिर्फ आकार का परिवर्तन होता है, उसी प्रकार एक धर्मध्व दूसरे धर्मध्व में १. तत्त्वसंग्रह का०, ३३८-३४३ २. वही, का० ३४७ ३. संयुत्तनिकाय, भारवर्ग, भारसुत्त, २१।१।३।१ ४. तत्त्वसंग्रह पञ्जिका, पृ० १६४-६६ ५. अभिधर्मकोश, पृ० २३१ से आगे ६. नात्मास्ति स्कन्धमानं ।-अभिधर्मकोश ३।१८, और भी देखें भाष्य पृ० ५६ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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