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४८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार मिलता है।' इनका मन्तव्य है कि पुद्गल का अस्तित्व है और यह पुद्गल पंचस्कन्धों से न भिन्न है और न अभिन्न । २
समीक्षा : पुद्गलवादियों का यह सिद्धान्त आत्मवादियों के अत्यधिक निकट है। जिसे आत्मवादियों ने आत्मा कहा उसे पुद्गलास्तिवादियों ने पुद्गल कहा है । आचार्य वसुबन्धु ने भी कहा है, 'पुद्गल एक नित्य पदार्थ प्रतीत होता है, यह आत्मा या जीव का दूसरा नाम है। " तत्वसंग्रह में इस मत की समीक्षा में कहा गया है कि पुद्गलास्तित्व मानने से आत्मवादियों की तरह उसे स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न मानना पड़ेगा। भिन्न मानने पर वात्सीयपुत्रीय आत्मवादी हो जायेंगे। दूसरी बात यह है कि पुद्गल को आत्मा की तरह कर्मों का कर्ता, भोक्ता एवं एक स्कन्ध छोड़कर दूसरे स्कन्धों को धारण करने वाला तथा संसरण वाला माना है। इसी प्रकार पुद्गल को नित्य मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से उसमें कर्तृत्व भोक्तृत्व असम्भव हो जाएगा और बुद्ध-वचनों के उल्लंघन का दोष आएगा क्योंकि उन्होंने शाश्वत आत्मा का निषेध किया है । पुद्गल को स्कन्धों से अभिन्न मानने से रूपादि की तरह उसे अनेक मानना पड़ेगा, जब कि पुद्गलास्तिवादी पुद्गल को एक मानते हैं । पुद्गल को स्कन्धों से अभिन्न मानने से स्कन्धों की तरह पुद्गल भी अनित्य हो जाएगा और ऐसा होने पर कृतप्रणासअकृत कर्म भोग का प्रसंग आएगा। यदि पुद्गलवादी उच्छेदवाद को स्वीकार करेगा तो भगवान बुद्ध के वचनों के भंग करने का प्रसंग आएगा । अतः पुद्गल न नित्य है और न अनित्य तथा नित्य और अनित्य न होने से अवाच्य है । अवाच्य होने के कारण उसकी आकाश फूल की तरह पारमार्थिक सत्ता नहीं है । वस्तु या तो सत् रूप होती है या असत् रूप । सत् और असत् से विलक्षण पदार्थ अवाच्य और मिथ्या होता है। पुद्गल भी स्कन्धों से भिन्न और अभिन्न होने के कारण वाच्य नहीं है। इसलिए उसकी सत्ता नहीं है। इस प्रकार पुद्गल अवाच्य होने से प्रज्ञप्ति मात्र सिद्ध होता है । यदि वात्सीयपुत्रीय पुद्गल को अवाच्य न मानकर वस्तुसत् मानते हैं तब पुद्गल को स्कन्ध से भिन्न या अभिन्न मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से वदतोव्याघात और प्रतिज्ञाभंग का
१. (क) कथावत्थु, पुग्गल कथा, पृ० १३-७१। (ख) तत्त्वसंग्रह, का २. तत्त्वसंग्रह, आत्मपरीक्षा, का० ३३६ । बौद्धचर्यापंजिका, पृ० ४५५ । ३. अभिधर्म कोश, ३।११८ ४. तत्त्वसंग्रह पञ्जिका, पृ० १६०, का० ३३७-३३८
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