________________
४६ : जैन दर्शन में आत्म-विचार
उदाहरण के लिए बुद्ध के द्वारा अनात्मवाद के विषय में सारनाथ में पंच भिक्खुओं को दिया गया उपदेश उल्लिखित किया जाता है । महावग्गादि' में अनात्मवाद का उल्लेख हुआ है । उसका सार यह है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान न तो समष्टि रूप से आत्मा है और न व्यष्टि रूप से; क्योंकि ये पंचस्कन्ध अनित्य, परिवर्तनशील, बाधावान्, रोगवान् एवं दुःखकारक हैं । इसलिए इनमें राग और मोह नहीं रखना चाहिये बल्कि इनसे विरक्त होकर विमुक्त का साक्षात्कार करना चाहिए। महावग्ग के अनत्तपरियायो सुत्त में भगवान् भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहते हैं : भिक्षुओ! रूप अनात्म है। यदि भिक्षुओ! रूप आत्मा होता तो इसमें रोग न होता। इस रूप के सम्बन्ध में कह सकते हैं कि मेरा रूप ऐसा हो और मेरा रूप ऐसा न हो । रूप आत्मा नहीं है, इसलिए भिक्षओ! रूप में रोग होता है और हम रूप के सम्बन्ध में नहीं कह सकते हैं कि मेरा रूप इस प्रकार हो, इस प्रकार न हो । इसी प्रकार क्रमशः वेदना, संज्ञा, संसार और विज्ञान को अनात्म होने का विस्तृत उपदेश दिया है। इस प्रकार भगवान् बुद्ध के अनात्मवाद के उपदेश से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने यह तो बताया कि अमुक पदार्थ आत्मा नहीं है लेकिन न तो उन्होंने यह उपदेश दिया कि आत्मा क्या है और न उसके अस्तित्व का कहीं खण्डन ही किया । भगवान् बुद्ध ने पांच स्कन्ध, बारह आयतन और अठारह धातुओं को अनात्म कहा था । लेकिन भगवान् बुद्ध के इस कल्याणकारी अनात्मवाद का अर्थ बाद के बौद्ध विद्वानों और सम्प्रदायों ने अपने-अपने अनुकूल करके बदल दिया । भगवान् बुद्ध के पश्चात् उनके अनात्मवाद के निम्नांकित रूप उपलब्ध होते हैं।
१. पुद्गल नैरात्म्यवाद २. पुद्गलास्तिवाद
१. (क) महावग्ग, १।६, पृ० ११-१६ । (ख) मज्झिमनिकाय, १।३।६ २. महावग्ग परियायो सुत्त, पृ० १६-१८ ३. विस्तृत विवेचन के लिए देखेंः (क) दीघनिकाय, १. ९. ३, २. ३ । (ख)
मज्झिमनिकाय, ११११२, १।३।२, ११३८, १।४।५, ११४८, १।५।३, ३।१।२, ३।१।९, ३।५।२, ३।५।४, ३।५।५, ३।५।६ आदि ।
(ग) संयुत्त निकाय, १।३।३, १।४।३, और १२।७।१० आदि ४. मज्झिमनिकाय-षडायतन वग्ग, नन्दकोवादसुत्त, चूल राहुलोवादसुत्त और
छ-छक्क सुत्त । ५. जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ० ९६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org