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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ४५
(ख) बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद
बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद क्षणिकवाद एवं प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त पर निर्भर है । इस दर्शन का अनात्मवाद सर्वथा तुच्छाभाव रूप नहीं है, क्योंकि आत्मवादियों की तरह इस दर्शन में भी पुण्य-पाप कर्म - कर्मफल, लोक-परलोक, पुनजन्ममोक्ष की मान्यता एवं महत्ता है । भगवान् बुद्ध के अनात्मवाद के पहले तत्कालीन परिस्थिति का संक्षिप्त उल्लेख करना अनुचित न होगा । दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त' और मज्झिम निकाय के सव्वासव सुत्तन्त के अनुसार उस समय दो प्रकार की विचारधाराएं थीं । शाश्वत आत्मवादी विचारधारा, जो आत्मा की नित्यता में विश्वास करती थी - दूसरी उच्छेदवादी विचारधारा थी, जो आत्मा को उच्छेद अर्थात् अनित्य मानती थी । भगवान् बुद्ध ने इन दोनों विचारधाराओं का खण्डन किया । पुग्गल पंजत्ति के अनुसार एक और विचारधारा प्रचलित थी जिसके अनुसार आत्मा का अस्तित्व न इस जीवन में है और
अन्य जीवन में । यही कारण हैं कि भगवान् बुद्ध कहते थे कि आत्मा सम्बन्धी किसी प्रश्न का उत्तर देने में प्रचलित एकान्तिक परम्पराओं से किसी एक का समर्थन हो जायेगा । अतः इस विषय में मौन धारण करना ही उन्होने श्रेयस् समझा । भगवान् बुद्ध को तत्कालीन प्रचलित आत्मविषयक कल्पनाओं में एक दोष यह दृष्टिगत हुआ कि कुछ आत्मवादी रूपादि में सत्काय दृष्टि रखते हैं । इस कारण अहंकार और ममत्व बढ़ता है जो संसार के आवागमन का कारण है । अत: बुद्ध ने जो जोवों को दुःख से तथा संसार के बन्धनों से मुक्त कराना चाहते थे सत्काय दृष्टि को समस्त दुःखों की जड़ कहा और जीवों को विराग तथा निर्ममत्व का उपदेश दिया । उपर्युक्त कारणों से प्रतीत होता है कि भगवान् बुद्ध की दृष्टि में अनात्मवाद का उपदेश देना श्रेयस्कर रहा, पर इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें आत्मास्तित्व में विश्वास नहीं था । वे आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते थे, लेकिन उसे नित्य और व्यापक न मानकर क्षणिकचित्त संततिरूप स्वीकार करते हैं, जैसा उनके व्याख्यानों से अवगत होता है ।
१. दीघनिकाय, १११
२. मज्झिमनिकाय, १1१/२
३. भारतीय दर्शन, भा० १ : डॉ० राधाकृष्णन्, पृ० ३५५ की पाद टिप्पणी ४. वही, पृ० ३५४
५. मज्झिमनिकाय, चूलवेदल्ल सुत्त ।
६. मज्झिमनिकाय, सब्बासवसुत्त
७. भारतीय दर्शन की रूपरेखा : एम० हिरियन्ना, पृ०१३८
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