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४४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
समीक्षा -- जैन दर्शन प्राणों को आत्मा नहीं मानता है, क्योंकि जैन दर्शन में दो प्रकार के प्राण माने गये हैं- -द्रव्य प्राणओर भाव प्राण । चार्वाक जिन प्राणों को आत्मा मानता है वे इस दर्शन में अचेतन और पौद्गलिक माने गये हैं । आत्मा चैतन्य स्वरूप है इसलिए प्राणों को आत्मा कहना ठीक नहीं है । न्याय-वैशेषिक दर्शन ने इस सिद्धान्त का खण्डन करते हुए कहा है कि प्राण आत्मा नहीं है, क्योंकि प्राण आत्मा का प्रयत्न विशेष है । प्राण आत्मा पर आधारित है और आत्मा उसका आधार है । अतः आत्मा प्राण से भिन्न है । '
विषय चैतन्यवाद : कुछ चार्वाक विचारकोंका मत है कि आत्मा की सत्ता नहीं है और न चैतन्य इन्द्रियादि का गुण है । क्योंकि यह देखा जाता है कि इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं; मगर विषयों का स्मरण बना रहता है। अतः चैतन्यता विषय या पदार्थ का गुण है ।
समीक्षा : १. प्रभाचन्द्राचार्य ने इस सिद्धान्त का भी खण्डन किया है। उसका निकट न होने यदि चैतन्यता
क्योंकि विषयों के प्रतीति होती है ।
तर्क है कि अर्थ चैतन्यता का आधार नहीं है पर एवं उनके नष्ट होने पर भी चैतन्य गुण की अर्थ का गुण या धर्म होता तो विषयों के दूर होने पर या नष्ट हो जाने पर भी स्मृत्यादि की प्रतीति नहीं होना चाहिए, मगर उनकी प्रतीति होती है । इसलिए सिद्ध है कि चैतन्य का आधार विषय नहीं है ।
(२) दूसरी बात यह है कि गुणों के नष्ट होने पर भी गुण की प्रतीति होना माना जाए तो इस गुणी में ये गुण हैं, यह कथन नहीं बन सकेगा । इसलिए सिद्ध है कि चैतन्य विषयों का गुण नहीं है, किन्तु अर्थ से भिन्न नित्य पदार्थ का गुण है जो नित्य पदार्थ इस चैतन्य का आधार है, वही आत्मा है । इस प्रकार चार्वाक अनात्मवाद पर विचार करने के वाद निष्कर्ष निकलता है कि यह सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है ।
१. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १७६
२. नापि विषयगुणः, तद्सान्निध्ये तद्विनाशे चानुस्मृत्यादिदर्शनात् । — प्रमेय - कमलमार्तण्ड, १७, पृ० ११५ । (ख) न्यायकन्दली, पृ० १७२ । (ग) न्यायकुमुदचन्द्र भाग १ ; प्रभाचन्द्राचार्य, पृ० ३४७ । (घ) न्यायदर्शनम् : वात्स्यायन भाष्य ३।२।१८, पृ० ३९५
३. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग १, पृ० ३४७ प्रमेयकमलमार्तण्ड, १७, पृ० ११५
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