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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ४३
सम्भव है, तो इसका अर्थ है कि प्रकारान्तर से मानसात्मवादियों ने आत्मा को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार कर लिया है' ।
३. प्रभाचन्द्र मानसात्मवादियों से पूछते हैं कि आप नित्य मन को आत्मा मानते हैं या अनित्य मन को ?
नित्यमन आत्मा नहीं है : यदि मानसात्मवादी नित्य मन को आत्मा मानता है तब उसके सिद्धान्त में माने गये भूतचतुष्टय की संख्या का व्याघात होता है । दूसरा दोष मानसात्मवाद में यह भी आता है कि दूसरों के सिद्धान्त को भी मानना पड़ेगा, क्योंकि न्यायवैशेषिक आदि मन को नित्य मानते हैं तथा जैन दर्शन भी भावमन को नित्य ही मानता है । अतः नित्यमन को आत्मा नहीं माना जा सकता है ।
अनित्य मन भी आत्मा नहीं है : यदि अनित्य मन को आत्मा माना जाए तो इस विषय में प्रश्न होता है कि इस अनित्य मन के पृथ्वी आदि भूत कारण हैं या अन्य कोई दूसरा कारण हैं । यदि अनित्यमन का कारण पृथ्वी आदि भूत हैं तो पृथ्वी आदि भूतों की तरह अनित्यमन भी भौतिक ही होगा और भौतिक होने से पृथ्वी आदि भूतों की तरह चेतना का वह अनित्य मन आश्रय नहीं हो सकेगा " । अतः नित्य मन की तरह अनित्य मन भी चेतना का आश्रय न होने के कारण मानसात्मवाद ठीक नहीं है ।
प्राणात्मवाद : कुछ चार्वाक प्राण को आत्मा मानते हैं । प्राणों के निकल जाने पर शरीर इन्द्रियादि सब व्यर्थ हो जाते हैं । 'मैं प्यासा हूँ', 'मैं भूखा हूँ' इस प्रकार के प्रयोगों से भी सिद्ध होता है कि प्राण ही आत्मा है । प्राणात्मवादियों का तर्क है कि उपनिषदों में भी प्राण को ही आत्मा कहा गया है ।
१. कर्तृत्वोपगमे प्रकारान्तरेणात्मैवोक्तः स्यात् । - प्रमेयकमलमार्तण्ड, १1७, पृ० ११५
२. ननु तत् नित्यम्, अनित्यं वा स्यात् ? -- न्यायकुमुदचंद्र, भाग १, परि० २, पृ० ३४७
३. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग १, परिच्छेद २, पृ० ३४७
४. अथ अनित्यम्, तत् किं भूतहेतुकम् अन्यहेतुकं वा ? - वही
५. भूतहेतुकत्वे प्रागुक्तभौतिकत्वाद्यनुमानेभ्यः चेतनाश्रयत्वानुपपत्तिः । - वही
६. अपरश्चार्वाक : प्राणाभाव इत्यादि चलनायोगादहमशयवानहं पिपासा -
वान् इत्याद्यनुभवाच्च प्राण आत्मेति वदति । - - वेदान्तसार, पृ० ५२ 9. तैत्तिरीयोपनिषद्, २१२३ । (ख) कौषित की, ३।२ । (ग) छान्दोग्य, ३११५१४
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