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४२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
५. इन्द्रियात्मवाद में एक यह भी दोष आता है कि इन्द्रियाँ अनेक हैं । अतः एक शरीर में अनेक आत्माओं का अस्तित्व मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से अनेक दोष आते हैं ।'
६. अनेक इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय को आत्मा मानना प्रमाण विरोधी कथन है । क्योंकि अमुक इन्द्रिय आत्मा है, इसका निर्णय करना सम्भव नहीं है । दूसरी बात यह है कि एक इन्द्रिय को चैतन्यस्वरूप मान कर शेष को करण मानने पर एक स्वतन्त्र आत्मा सिद्ध हो ही जाती है ? ।
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मानसात्मवाद : चार्वाक दर्शन का एक वर्ग मन को ही आत्मा मानता है । इनका तर्क है कि मन से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ ऐसा नहीं है जिसे आत्मा कहा सके । मन के सक्रिय होने पर ही इन्द्रियाँ अपने विषय को जान सकती हैं । मैं संकल्प-विकल्पवान् हूँ इस प्रकार का अनुभव मन को ही होता है । अतः मन ही आत्मा है । तैत्तिरीय उपनिषद् में भी मानसात्मवाद का उल्लेख
उपलब्ध है ।
समीक्षा : १. प्रमेयकमलमार्तण्ड में मानसात्मवाद के निराकरण में कहा है कि मन बसूलादि की तरह अचेतन करण है, इसलिए वह चैतन्य का आधार नहीं हो सकता है । चैतन्य का आधार न होने के कारण मन को आत्मा कहना ठीक नहीं है" । न्यायवैशेषिक, सांख्य योग और मीमांसकों ने भी यही तर्क मानसात्मवाद के खण्डन में दया है ।
२. दूसरी बात यह है कि मन को आत्मा मानने से वह रूपादि समस्त विषयों का ज्ञाता हो जायगा । ऐसा मानने पर किसी दूसरे को आन्तरिक करण मानना पड़ेगा, जिसके द्वारा चार्वाकों का मानसात्मा आन्तरिक और बाह्य विषयों को जान सके अन्यथा क्रिया नहीं हो सकेगी । इस प्रकार का आन्तरिक करण मन के अलावा अन्य नहीं हो सकता है । अतः सिद्ध है कि मन आत्मा नहीं है । इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि यदि अन्य कोई आन्तरिककरण
१. न्यायकुमुदचंद्र, ३४६
२. तथा नामान्तरकरणात् । - प्रमेयक मलमार्तण्ड, पृ० ११५
३. वेदान्तसार : सदानन्द, पृ० ५३ । ( ख ) न्यायकुमुदचंद्र, पृ० ६४७
४. अन्योन्तरात्मा मनोमयः । तैत्तिरीयोपनिषद् २।३।१
५. प्रमेयकमलमार्तण्ड : प्रभाचन्द्र, १1७, पृ० ११५
६. (क) न्यायकन्दली भा० : वात्स्यायन, पृ० ४२ । (ख) परमात्म प्रकाश : पृ० १४९
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