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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ४१ आत्मवादी "मैं" प्रत्यय आत्मा के लिए प्रयुक्त होना मानते हैं। यहाँ पर "मैं" प्रत्यय इन्द्रियों के लिए प्रयुक्त हुआ है, अतः इन्द्रियाँ ही आत्मा हैं ।
समीक्षा : आचार्य प्रभाचन्द्र ने इन्द्रियात्मवाद की समीक्षा करते हुए कहा है
१. इन्द्रियाँ आत्मा नहीं हैं, क्योंकि इन्द्रियाँ अचेतन हैं, भूतों का विकार रूप हैं और बसूलादि की तरह वे करण है। अतः जिस प्रकार अचेतन और करण रूप बसूला आत्मा नहीं है, इसी प्रकार इन्द्रियाँ भी आत्मा नहीं है। न्यायकंदली में भी यही तर्क दिया है।
२. चैतन्य को इन्द्रियों का गुण मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि चक्षुरादि इन्द्रियों के नष्ट होने पर चैतन्य नष्ट नहीं होता है । प्रशस्तपाद भाष्यों में यही तर्क उपलब्ध होता है।
३. षड्दर्शनसमुच्चय को टीका में गुणरत्न ने कहा है कि यदि इन्द्रियाँ आत्मा होतीं तो उनके नष्ट होने पर स्मरणादि ज्ञान नहीं होना चाहिए । लेकिन इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी स्मरणादि ज्ञान होता है । इससे सिद्ध है कि आत्मा इन्द्रियों से उसी प्रकार भिन्न है जिस प्रकार खिड़कियों से देखने वाला खिड़कियों से भिन्न होता है।"
४. प्रभाचन्द्र इन्द्रियात्मवाद का निराकरण करते हुए कहते हैं कि इन्द्रियों को आत्मा मान लेने पर वे कर्ता हो जाएंगी, और ऐसा होने पर करण का अभाव हो जाएगा। करण के अभाव में कर्ता कोई क्रिया नहीं कर सकेगा। इन्द्रियों के अतिरिक्त अन्य किसी को करण मानना सम्भव नहीं है। अतः इन्द्रियों को आत्मा मानना व्यर्थ है ।
१. नेन्द्रियाणि चैतन्यगुणवन्ति करणत्वाद्भूतविकारत्वाद्वास्यादिवत् ।
प्रमेयकमलमार्तण्ड, १७, पृ० ११४ । २. न्यायकन्दली : श्रीधराचार्य, पृ० १७२ ३. तद्गुणत्वे च चैतन्यस्येन्द्रियविनाशे प्रतीतिनस्याद्-प्रमेयकमलमार्तण्ड,
१७, पृ० ११४ । (ख) न्यायकुमुदचंद्र, भाग १, पृ० ३४६ ४. प्रशस्तपाद भाष्य, पृ० ४९ ५. षट्दर्शनसमुच्चय, टीकाः गुणरत्न, का० ४९, पृ० २४६ ६. प्रमेयकमलमार्तण्ड, १७, पृ० ११४
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