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४० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
की भांति चेतना विद्यमान होनी चाहिए । लेकिन ऐसा नहीं होता है । अतः सिद्ध है कि चैतन्य शरीर का धर्म नहीं है । "
४. शरीरात्मवादियों के दृष्टान्त का खण्डन करते हुए अकलंकदेवभट्ट कहते हैं कि यह दृष्टान्त विषम है । मदिरा के प्रत्येक घटक में मादकता रहती है लेकिन प्रत्येक भूतों में चैतन्यता नहीं रहती है । अतः शरीराकार परिणत भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है । ५. " मैं मोटा हूँ" "मैं कृश हूँ" इन प्रत्ययों से शरीर आत्मा सिद्ध नहीं होता है । प्रभाचन्द्राचार्य ने इस तर्क के निराकरण में कहा है कि ये प्रत्यय शरीर में अनौपचारिक रूप से होते हैं । जिस प्रकार किसी विश्वसनीय नौकर को मालिक कहने लगता है कि यह नौकर ही मैं हूँ, यद्यपि नौकर मालिक नहीं होता है । दोनों अलग-अलग होते हैं । इसी प्रकार आत्मा और शरीर दोनों भिन्न-भिन्न होने पर व्यावहारिक रूप से अभिन्न प्रतीत होते हैं । जैन दार्शनिकों ने शरीरात्मवाद सिद्धान्त के निराकरण के लिए और भी अनेक तर्क दिये हैं, जिनको यहाँ प्रस्तुत करना सम्भव नहीं हैं ।
इन्द्रियात्मवाद : चार्वाक सम्प्रदाय का एक वर्ग मानता है । ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य" और वेदान्तसारादि का परिचय उपलब्ध होता है । इस मत मानने वालों का तर्क है कि शरीरादि इन्द्रियों के अधीन है । इन्द्रियों के विद्यमान रहने पर ही पदार्थों का ज्ञान होता है और उनके अभाव में नहीं होता है । दूसरी बात यह है "मैं बधिर हूँ" इत्यादि प्रयोगों से सिद्ध है कि इन्द्रियाँ ही
कि "मैं अन्धा हूँ", आत्मा हैं; क्योंकि
इन्द्रियों को ही आत्मा ग्रन्थों में इस सिद्धान्त
१. शास्त्रवार्तासमुच्चय, १।६५-६६
२. तत्त्वार्थवार्तिक, २।७।२७, पृ० ११७
३. (क) प्रमेयकमलमार्तण्ड, १1७, पृ० ११२ । ( ख ) न्यायकुमुदचन्द्र भाग १, पृ० ३४९
४. द्रष्टव्यः प्रमेयकमलकमार्तण्ड, १1७, पृ० ११०-१२० । (ख) न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ३४३-४९ । (ग) शास्त्रवार्तासमुच्च्य, पहला स्तवक, का० ३०-११२ । (घ) अष्टसहस्री, पृ० ३६-३७, ६३-६६ ।
५. ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य, पृ० ५२ ६. वेदान्तसार, पृ० २६
७. पश्यामि शृणोमीत्यादि प्रतीत्या मरणपर्यन्तं ।
यावन्तीन्द्रियाणी तिष्ठन्ति तान्येवात्मा ॥ - चार्वाकदर्शन की शास्त्रीय समीक्षाः डा० सर्वानन्द पाठक, सूत्र ५।३६ पृ० १४०
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