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________________ भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ३९ शरीरात्मवाद : चार्वाक दर्शन का एक सम्प्रदाय शरीर को ही आत्मा मानता है। सूत्रकृतांग में तज्जीवतच्छरीरवाद के रूप में शरीरात्माद का विवेचन किया गया है। इस मत के मानने वालों का तर्क है कि पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चार महाभूतों की सत्ता है । इन चारों भूतों के शरीराकार में परिणत होने से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न हो जाता है, जैसे मादक द्रव्य महुआ में जौ आदि के मिलने से मादकता उत्पन्न हो जाती है । अतः चैतन्य विशिष्ट शरीर ही आत्मा है। शरीर के अतिरिक्त आत्मा नामक कोई तत्त्व नहीं है।" देहात्मवादियों के सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हुए माधवाचार्य ने लिखा है कि "मैं मोटा हूँ, मैं दुबला हूँ" इस कथन से भी शरीर ही आत्मा सिद्ध होता है। मृत्यु के बाद शरीर के नष्ट होने के साथ आत्मा का भी विनाश हो जाता है । समीक्षा : न्याय-वैशेषिकादि अन्य भारतीय दार्शनिकों ने भी शरीरात्मवादियों की समीक्षा की है।; जो निम्नांकित है : १. पहली बात यह है कि पृथ्वी आदि महाभूत अचेतन हैं। पृथ्वी धारण स्वभाव वाली है, वायु ईरण स्वभाव है, जल द्रव स्वभाव और अग्नि उष्णता स्वभाव है । इस प्रकार के अचेतन और धारणादि स्वभाव वाले भूतों से चैतन्य स्वरूप आत्मा की उत्पत्ति नहीं हो सकती। हरिभद्र ने भी शास्त्रवार्तासमुच्चय में यही कहा है। २. अकलंकदेव शरीरात्मवाद का निराकरण करते हुए कहते है कि यदि चैतन्य भूतों के संयोग से उत्पन्न होता है तो जिस प्रकार पृथिवी आदि के विभक्त होने पर कम और अविभक्त होने पर अधिक गुण दिखलाई पड़ते हैं उसी प्रकार शरीर के अवयवों के विभक्त होने पर ज्ञानादि गुणों की न्यूनता और अविभक्त होने पर अधिकता परिलक्षित नहीं होती है । इसलिए सिद्ध है कि शरीराकार परिणत भूतों से चैतन्य नहीं उत्पन्न होता है। ३. तत्त्वार्थवार्तिक में अकलंकदेव एवं शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र कहते हैं कि यदि सुखादि चैतन्य शरीर के धर्म हैं तो मृत शरीर में भी रूपादि गुणों १. सर्वदर्शन संग्रह, पृ० १० २. सूत्रकृतांग, २।१।९ ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, २।४।१२ ४. ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य, ३.३।५३ ५. सर्वदर्शनसंग्रह (हिन्दी अनुवाद), पृ० १० ६. प्रमेयरत्नमाला, ४।८, पृ० २९६ ७. शास्त्रवार्तासमुच्चय, का० ११४३-४४ ८. तत्त्वार्थवार्तिक : अकलंकदेव, २।७।२७, पृ० ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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