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आत्म-अस्तित्व-विमर्श
भारतीय दर्शन में आत्म-सिद्धि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय माना गया है, क्योंकि आत्मा के अस्तित्व के विषय में परस्पर विरोधी विचारधाराएँ उपलब्ध होती हैं। प्रारम्भ में अनात्मवादियों ने समय-समय पर आत्मास्तित्व बाधक तर्क प्रस्तुत किये हैं और आत्मवादियों ने उनके तर्कों का खण्डन करके प्रबल युक्तियों द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध की है । भारतीय दर्शन में चार्वाक और बौद्धदर्शन अनात्मवादी दर्शन माने जाते हैं क्योंकि इन दर्शनों में आत्मा नामक ऐसा कोई तत्त्व नहीं माना गया है, जो पूर्व और उत्तर जन्म में स्थायी रूप से रहता हो । शेष दर्शन पुनर्जन्म रूप में आत्म-तत्त्व को स्वीकार करते हैं, इसलिए आत्मवादी दर्शन कहलाते हैं । यहाँ अनात्मवादियों के विचार अत्यन्त संक्षेप में प्रस्तुत किये जाते हैं। (क) चार्वाक दर्शन का अनात्मवाद : __ चार्वाक दर्शन के प्रवर्तक बृहस्पति नामक ऋषि थे। चार्वाक दर्शन के अनात्मवाद का सूत्रपात आत्मवाद के साथ हुआ प्रतीत होता है । यह प्रायः होता है कि विधि के साथ निषेध अवतरित होता है। अतः यह आश्चर्य नहीं कि आत्मचिन्तन के साथ अनात्म-चिन्तन का प्रादुर्भाव हुआ हो । चार्वाक सिद्धान्त भौतिकवाद भी कहलाता है। अन्य प्राचीन ग्रन्थों के साथ सूत्रकृतांगसूत्र' नामक दूसरे अंग में भी इसके अनात्मवाद का परिचय उपलब्ध होता है । चार्वाक एक मात्र इन्द्रिय-प्रत्यक्ष तत्त्वों का अस्तित्व मानते हैं । वे अपनी इस प्रमाण मीमांसा के अनुसार तर्क करते हैं कि आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता है । इसलिए किसी ऐसे तत्व की सत्ता नहीं है, जिसका पुनर्जन्म होता हो और जिसे आत्मा कहा जा सके । यही चार्वाक का अनात्मवाद है । इस अनात्मवाद से निम्नांकित वाद फलित हुए जान पड़ते हैं-शरीरात्मवाद, इन्द्रियात्मवाद, मानसात्मवाद, प्राणात्मवाद और विषय चैतन्यवाद । १. सूत्रकृतांगसूत्र, १।१।१७ । २. प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम् ।-चार्वाक दर्शन की शास्त्रीय समीक्षा-डा० सर्वा
नन्द पाठक; सूत्र ५।२०, पृ० १३८ । ३. (क) यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः ।""सर्वदर्शनसंग्रह : माधवा
चार्य, पृ० ३। (ख) षड्दर्शनसमुच्चय, का० ८० ।
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