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३६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार होकर ईश्वर से उसका साक्षात्कार होना मोक्ष है, आत्म-साक्षात्कार नहीं। रामानुज जीवन्मुक्ति में विश्वास नहीं करता है । वह केवल विदेह-मुक्ति में विश्वास करता है। इसके विपरीत बौद्ध, जैन, सांख्य-योग, अद्वत-वेदान्त दार्शनिक
और उद्योतकर भी अपर और पर निःश्रेयस् के भेद करके जीवन्मुक्ति और विदेह-मुक्ति को मानते हैं। इन दार्शनिकों ने जीवन्मुक्ति की कल्पना करके यह सिद्ध कर दिया कि मुक्ति केवल आस्था या विश्वास की चीज नहीं है बल्कि यह एक यथार्थ सिद्धान्त है जिसका अनुभव मुमुक्षु मनुष्य स्वयं अपने इसी जीवन में कर सकता है ।
माधवाचार्य भी मोक्ष को रामानुज की तरह भगवत् कृपा का फल मानता है । डा० नंदकिशोर देवराज ने इनके मोक्ष के अनेक रूपों का उल्लेख किया है । जीव भगवान् के साथ एक ही जगह रहता है, वहाँ वह भगवान् के निरन्तर दर्शन प्राप्त करता है । माधवाचार्य उसे सालोक्य-मुक्ति कहते हैं। सामीप्यमुक्ति में जीव ईश्वर के और निकट आ जाता है। सारूप्य-मुक्ति · पूर्वोक्त दोनों मुक्तियों से ऊंची है, इसी को सायुज्य-मुक्ति कहते हैं । इस मुक्ति के विषय में कहा गया है कि जो ईश्वर को निरन्तर सेवा करते हैं और बाह्य आकार में भगवान् से मिलते-जुलते हैं, उन्हें यह मोक्ष मिलता है । सायुज्य-मुक्ति में मुक्तात्मा भगवान् में प्रवेश करके उनके आनन्दपूर्ण जीवन का सहभागी होता है ।२ निम्बार्क के अनुसार मोक्ष भगवान् के स्वरूप का उपभोग-रूप है । इस मत में आत्मा और ब्रह्म के स्वरूप-ज्ञान को मोक्ष कहा है। वल्लभाचार्य का भी यही मत है। स्पष्ट है कि माधव, निम्बार्क और वल्लभ भक्तदर्शनों में मोक्ष का अर्थ आत्मलाभ नहीं बल्कि ईश्वर से निरन्तर सम्बन्ध है ।
इनके अलावा भारतीय दर्शन में, विशेष रूप से जैनदर्शन और छह हिन्दू दर्शनों में मोक्ष का अर्थ किसी पदार्थ से योग करना नहीं है, बल्कि मोक्ष का अर्थ आत्मलाभ या आत्मा को अपने स्वाभाविक स्वरूप की उपलब्धि है । (ठ) दार्शनिक-निकायों में आत्म-सम्बन्धी समस्याएँ और उनका हल ___ अब हम यहाँ पर आत्म-सम्बन्धी विविध समस्याओं का और उनके विषय में विविध दर्शनों का मत प्रस्तुत करेंगे। दार्शनिक निकायों के आधारभूत सूत्र ग्रन्थ और उस पर लिखे भाष्य एवं टीकाओं में निम्न प्रश्न उठाये गये हैं :,
१. भारतीय दर्शन, संपादक डा० एन० के० देवराज, १० ५७७-७८ २. वही, पृ० ६१६ ३. वही, पृ० ६००
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