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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ३५
सांख्य योग दर्शन में पुरुष ( आत्मा ) प्रकृति से भिन्न चैतन्यस्वरूप माना गया है, अतः इस दर्शन के चिन्तकों ने प्रकृति और पुरुष के वियोग को मोक्ष कहा है ' । मोक्ष में पुरुष अपने स्वाभाविक स्वरूप चैतन्य में अवस्थित हो जाता है । यद्यपि योग दर्शन में ईश्वर की कल्पना की गयी है, लेकिन इस दर्शन के दार्शनिकों का अभिमत कि मुक्त पुरुषों का इस ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं है" ।
मीमांसा दार्शनिक प्रभाकर ने भी न्याय-वैशेषिक की भाँति यह माना है कि मुक्तात्मा में चेतन का अभाव रहता है । इसका कारण यही है कि इन्होंने आत्मा को जड़वत् बतलाया है । इसलिए प्रकरणपंचिका में मोक्ष को आत्मा का प्राकृतिक स्वरूप कहा है
विलीन हो
जाना है ।
आत्मा और
ब्रह्म को
अद्वैत वेदान्त : अद्वैत वेदान्त दर्शन में भी आत्मा का को प्राप्त करना मोक्ष माना गया है । अद्वैत वेदान्त में तादात्म्य है । इसलिए मोक्ष का अर्थ आत्मा का ब्रह्म में डॉ० न० कि० देवराज ने लिखा है " अद्व ेत - वेदान्त में अभिन्न माना जाता है, इसलिए मोक्ष को आत्मा का स्वरूप - लाभ उपयुक्त है जितना उसे ब्रह्म-लाभ अथवा ब्रह्म प्राप्ति कहना" ।" मोक्ष आत्मा और ब्रह्म के एकाकार होने की अवस्था का नाम है और ब्रह्म सत् - चित्-आनंदस्वरूप है, इसलिए मोक्षावस्था आनन्दस्वरूप है ।
कहना ही
विशिष्टाद्वैत वेदान्त : रामानुजाचार्य यद्यपि इस कथन से बहुत कुछ सहमत हैं कि आत्मस्वरूप का ज्ञान होना मोक्ष है । लेकिन यहाँ पर मोक्ष का अर्थ आत्म-स्वरूप की उपलब्धि नहीं बल्कि आत्मा का ईश्वर के साथ निरन्तर सम्पर्क होना है । रामानुज शंकर के इस मत से सहमत नहीं हैं कि मोक्षावस्था में आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है । मुक्तात्मा ब्रह्म के सदृश हो जाती है । अद्वैत वेदान्त में मोक्ष प्राप्ति अपने प्रयासों द्वारा कही गयी है जबकि रामानुज ईश्वर भक्ति के द्वारा ही मानता है । ईश्वर की कृपा से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । मुक्तात्मा ईश्वर की भाँति हो जाती है और समस्त दोषों से मुक्त १. ( क ) प्रकृति वियोगो मोक्षः । २. (ख) तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । योगसूत्र, १३
षड्दर्शनसमुच्चय : हरिभद्र, कारिका ४३
३. स्वात्मस्फुरणरूपः । - प्रकरण पंचिका : प्रभाकर, पृ० १५७
४. स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः । तैत्तिरीयोपनिषद् भाष्य, १११
स्वाभाविक अवस्था
आत्मा और ब्रह्म में
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५. भारतीय दर्शन, संपादक डा० एन० के० देवराज, भूमिका, पृ० १७
६. वही
७. वही, ५० ५७७-७८
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