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________________ ३४ : जनदर्शन में आत्म-विचार है।' इसी आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप की उपलब्धि को भारतीय चिन्तकों ने मोक्ष, मुक्ति, अपवर्ग, निःश्रेयस्, निर्वाण और कैवल्य कहा है। . जैन और न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा और अद्वैत-वेदान्त इन छहों हिन्दू दर्शनों ने मोक्ष का अर्थ आत्म-लाभ ही प्रतिपादित किया है । इस विषय में उपर्युक्त दर्शनों के विचारों का विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है । जैन दर्शन में शुद्धात्मा अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख और अनन्तवीर्य स्वरूप माना गया है। संवर और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का समूल क्षय हो जाने पर मोक्ष में आत्मा को अपने स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है। चार पुरुषार्थों में मोक्ष को ही जैन दार्शनिकों ने परम पुरुषार्थ कहा है । अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी है-जिस समय सम्यक् पुरुषार्थ रूप सिद्धि को प्राप्त अशुद्ध आत्मा समस्त विभावों को नष्ट करके अपने चैतन्यस्वरूप को प्राप्त होता है, तब यह आत्मा कृतकृत्य हो जाता है । अत: आत्म-स्वरूप का लाभ होने को जैन दर्शन में मोक्ष कहा गया है । न्याय-वैशेषिक दार्शनिक-चैतन्य को आत्मा का स्वाभाविक गुण न मान कर उसे आगन्तुक गुण मानते हैं। उनका मत है कि शरीर, मन, इन्द्रिय और विषय के संयोग से चेतना उत्पन्न होती है। मुक्ति में शरीरादि का अभाव होता है इसलिए मुक्तात्मा में चेतनादि आगन्तुक गुण नहीं रहते हैं। इस दर्शन में मुक्ति का अर्थ आत्मा के स्वरूप का लाभ है । न्याय-वैशेषिक दर्शन में मुक्ति का अर्थ ईश्वर के आनन्द से आनन्दित होना नहीं माना गया है, जैसा कि बाद के भक्त दार्शनिक माधवाचार्यादि ने माना है । १. भारतीय दर्शन, संपादक डा० न० कि० देवराज, भूमिका, पृ० १६ २. वही ३. (क) सर्वार्थसिद्धि, १११, उत्थानिका (ख) आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मलक्षयात् । -सिद्धिविनिश्चय : अकलंकदेव, पृ० ३८४ (ग) शुद्धात्मोपलम्भलक्षणः सिद्धपर्यायः ।--प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति जयसेनाचार्य, पृ० १२ ४. परमात्मप्रकाशः योगेन्दु, गाथा २।३ ५. पुरुषार्थ सिद्धथुपायः कारिका ११ ६. (क) न्यायसूत्र, १।१।२२ । (ख) नवानामात्मविशेषगुणचनात्यातो नित्तिर्मोक्ष :-न्यायमंजरीः जयन्त भट्ट, प्र० ५०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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