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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ३३ विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन के साथ तुलना : जैन और विशिष्टाद्वैत चिन्तक दोनों आत्मा को शरीर, मन और इन्द्रियों से भिन्न मानते हैं। जैन दार्शनिक जिसे जीव या आत्मा कहता है, रामानुज उसे 'जीवात्मा' नाम से सम्बोधित करता है ।
जैन दार्शनिकों की तरह रामानुज भी आत्मा को कर्मों का कर्ता और भोक्ता, ज्ञाता, स्वयं-प्रकाश, नित्य, अनेक, प्रतिशरीर भिन्न और ज्ञान-आनन्द स्वरूप मानता है।
रामानुज का जीवात्मा-विचार जैन दार्शनिकों के आत्म-विचार से भिन्न भी है। रामानुज जीवात्मा को ब्रह्म का अंग या गुण मान कर ईश्वर परतन्त्र मानता है। जैन दार्शनिकों की तरह रामानुज आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानता है, किन्तु ब्रह्म या ईश्वर को जीव का मालिक और संचालक स्वीकार करता है। रामानुज ब्रह्म को जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का फलदाता मानता है लेकिन जैन चिन्तक कर्मों को ही कर्मफल प्रदान करने की शक्ति मानता है । इसी प्रकार रामानुज जीवात्मा को अणुरूप मानता है किन्तु जैन दार्शनिक उसे अणुरूप न मान कर शरीर प्रमाण मानता है ।
रामानज जीवात्मा के तीन भेद-बद्ध-जीव, मुक्त-जीव और नित्य-जीव मानता है । लेकिन जैन दार्शनिक संसारी और मुक्त -ये दो भेद मानते हैं ।
रामानुज जीवात्मा की विदेह मुक्ति मानता है, वह जैनों की तरह जीवन मुक्ति को नहीं मानता है । मोक्षावस्था में जीव ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म सदश हो जाता है लेकिन जैन दार्शनिक किसी में लीन या सदृश होना जीव का मोक्ष नहीं मानता है। रामानुज आत्मा को मोक्षावस्था चैतन्य स्वरूप जैनों की तरह मानता है। (ट) मोक्ष का अर्थ आत्म-लाभ :
भारतीय चिन्तकों ने मोक्ष को जोवन का चरम लक्ष्य मान कर उसके स्वरूप और उपाय का सर्वांग एवं विस्तृत विवेचन किया है। सभी भारतीय दर्शन परम्पराओं में मोक्ष की अवधारणा अलग-अलग उपलब्ध होती है। मोक्ष का अर्थ है जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना ।' भारतीय दार्शनिकों ने आत्मा के स्वरूप की कल्पना विविध रूपों में की है, किन्तु सभी अध्यात्मवादी दार्शनिक इस बात से सहमत हैं कि आत्मा अनादि, अजर और अमर है । अविद्या, माया, वासना या कर्म के अलग होने पर अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता
१. भारतीय दर्शन : डा० राधाकृष्णन्, भाग २, विषय-प्रवेश, पृ० २३
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