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३२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
(४) शंकरा चार्य सांख्यों की तरह आत्मा को वास्तविक कर्ता और भोक्ता न मान कर उपाधियों के कारण कर्ता भोक्ता मानता है, लेकिन जैन दार्शनिक आत्मा को यथार्थ रूप से न्याय-वैशेषिक और मीमांसकों की तरह कर्तामोक्ता मानते हैं।
(५) शंकराचार्य जैन आदि भारतीय दार्शनिकों की भांति आत्मा को अनेक न मान कर एक मानते हैं । जैन दार्शनिक शंकराचार्य के इस मत से सहमत नहीं हैं कि जैसे एक चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जल की विभिन्न सतहों में पड़ने से अनेक की प्रतीति होती है, उसी भांति अविद्या (शरीर और मनस् की उपाधियों) के कारण एक आत्मा अनेक दिखलाई पड़ते हैं। संक्षेप में शंकराचार्य ने आत्मा को एक और जीव को अनेक माना है, लेकिन जैन आत्मा को अनेक मानते हैं ।
(६) अद्वैत वेदान्त मत में आत्मा न्याय-वैशेशिक, सांख्य योग और मीमांसकों की भांति निष्क्रिय है। इसके विपरीत जैन दर्शन में आत्मा को सक्रिय माना गया है।
(७) जैन दार्शनिक आत्मा को सावयवी (प्रदेशी) और अव्यापक मानता है और अद्वैत वेदान्त आत्मा को अन्य भारतीय दार्शनिकों की भांति निरवयवी तथा व्यापक मानता है।
(८) वेदान्तियों के जीव को ईश्वर कर्मों का फल प्रदान करता है लेकिन जैन दार्शनिक मत में आत्मा के कर्मों के फल प्राप्ति में ईश्वर जैसी सत्ता की कल्पना नहीं की गयी है । जैन दार्शनिक वेदान्तियोंकी तरह यह भी नहीं मानते हैं कि जीव का कोई (ईश्वर) शासक है।
(९) शंकराचार्य का मत है कि विशुद्ध ज्ञान द्वारा आत्मा मोक्ष अवस्था को प्राप्त कर सकता है किन्तु इसके विपरीत जैन दार्शनिकों के अनुसार सम्यग् दर्शन ज्ञान और चारित्र के द्वारा आत्मा मोक्षावस्था को प्राप्त कर सकता है । अत वेदान्ती चिन्तक और जैन चिन्तक दोनों मोक्ष अभावात्मक न मान कर भावात्मक मानते हैं ।
(१०) जैन दार्शनिक मत से वेदान्ती दार्शनिक इस बात में भी सहमत हैं कि आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप की प्राप्ति होना मोक्ष है लेकिन जैन दार्शनिक वेदान्तियों की तरह यह नहीं मानते हैं कि मोक्षावस्था में जीव ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
(११) शंकराचार्य के अनुसार मोक्ष अवस्था में आत्मा शुद्ध, चैतन्य और आनन्द स्वरूप होता है किन्तु जैन दर्शन में मोक्षावस्था में आत्मा को अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य स्वरूप बतलाया गया है। दोनों दर्शनों में यह भी समानता है कि दोनों आत्मा की जीवन-मुक्ति और विदेह मुक्ति में विश्वास करते हैं।
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