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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ३१ रखता है क्योंकि जैन दार्शनिक मोक्षावस्था में आत्मा को आनन्दादि स्वरूप भी मानते हैं। . (९) कुमारिल भट्ट मानते हैं कि सुषुप्ति अवस्था में आत्मा की सत्ता रहती है, जैन दार्शनिकों की तरह वे यह भी मानते हैं कि सुषुप्ति अवस्था में आत्मा ज्ञान शक्ति से युक्त रहता है। न्याय-वैशेषिक एवं प्रभाकर की तरह वे यह नहीं मानते हैं कि सुषुप्ति अवस्था में आत्मा ज्ञान रहित जड़ हो जाती है । इसके अतिरिक्त कुमारिल भट्ट जैन दार्शनिकों एवं उपनिषदों की तरह यह नहीं मानने हैं कि सुषुप्ति अवस्था में आत्मा को आनन्द की अनुभूति होती है।।
(१०) मीमांसक दर्शन में न्याय-वैशेषिक और सांख्य-योग की तरह आत्मा को व्यापक कह कर जैन दर्शन के आत्म स्वरूप विमर्श से मतभेद प्रकट किया है, क्योंकि जैन दार्शनिक आत्मा को व्यापक न मान कर देहपरिमाण मानते हैं ।
(११) जैन दार्शनिकों की तरह मीमांसक दार्शनिक इस बात से सहमत हैं कि आत्मा को कर्मफल की प्राप्ति ईश्वर के द्वारा नहीं होती है । इसके लिए उन्होंने "अपूर्व" की कल्पना की है जब कि जैनों ने फल प्रदान करने की शक्ति कर्मों में ही मानी है । संक्षेप में कुमारिल भट्ट का आत्मा सम्बन्धी विचार जैनों के नजदीक है।
अद्वैत वेदान्त-सम्मत आत्म-विचार के साथ तुलना : (१) जैन दर्शन में आत्मा का जो स्वरूप बतलाया गया है उसके साथ वेदान्तीय आत्मा के स्वरूप की तुलना करने पर विभिन्न समानताएँ और असमानताएँ परिलक्षित होती है। जैन दर्शन में जीव और आत्मा में कोई भेद नहीं माना जाता है, दोनों शब्द एक ही सत्ता के सूचक हैं, लेकिन वेदान्त दर्शन में आत्मा जो ब्रह्म कहलाता है, जीव से भिन्न माना गया है। जैन दर्शन में संसारी आत्मा का जो स्वरूप विवेचित किया गया है वेदान्त दर्शन में जीव का वही स्वरूप बतलाया गया है और वेदान्तियों की आत्मा का स्वरूप लगभग वही है जो जैन दर्शन में निश्चय नय की अपेक्षा से आत्मा का स्वरूप है।
(२) जैन एवं सांख्य दार्शनिकों की तरह वेदान्ती भी मानते हैं कि आत्मा चैतन्य स्वरूप है। आत्मा का चैतन्य जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में मौजूद रहता है । क्योंकि उपर्युक्त दार्शनिक न्याय वैशेषिकादि की तरह चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं मान कर उसका स्वभाव मानते हैं ।
(३) वेदान्त दर्शन के चिन्तकों ने सत्, चित्, आनन्द और ज्ञानात्मक रूप आत्मा का कथन किया है । जैन चिन्तक भी आत्मा को सत्, चित् और आनन्द स्वरूप तो मानते हैं और इसके साथ ही अनन्त-दर्शन और अनन्त वीर्य स्वरूप भी मानते हैं ।
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