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________________ ३० : जैनदर्शन में आत्म-विचार है। प्रभाकर और कुमारिल भट्ट दोनों सम्प्रदाय जैन और सांख्य दार्शनिकों की तरह आत्मा को चैतन्य स्वरूप नहीं मानते हैं। प्रभाकर और उसके मतानुयायी न्याय वैशेषिक की तरह आत्मा को जड़वत् मान कर चैतन्य को उसका आगन्तुक गुण मानते हैं, जो मन और इन्द्रियों के साथ आत्मा का सम्पर्क होने पर उत्पन्न होता है । कुमारिल भट्ट न न्याय वैशेषिक और प्रभाकर की तरह आत्मा को जड़वत मानता है और न जैन और सांख्यों की तरह चैतन्य स्वरूप मानता है बल्कि बोधाबोधात्मक स्वरूप मानता है । (२) कुमारिल भट्ट जैन दार्शनिकों की तरह आत्मा को परिणामी और नित्य मानता है, जब कि प्रभाकर तथा उसके मतानुयायी आत्मा को अपरिणामी और नित्य मानते हैं । इसी प्रकार जैनों की तरह ज्ञान को आत्मा का परिणाम मानते हैं। (३) कुमारिल भट्ट का आत्मा सम्बन्धी विचार जैन दर्शन सम्बन्धी आत्मा के विचार से इस बात में भी समानता रखता है कि आत्मा ज्ञाता और ज्ञेय है । लेकिन प्रभाकर न्याय वैशेषिक की तरह आत्मा को ज्ञाता मानकर जैन के आत्मस्वरूप विमर्श से असमानता रखता है । (४) मीमांसा दर्शन में जैन दर्शन की तरह आत्मा को कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता कह कर अनेक आत्माओं की कल्पना की गयी है। इसी प्रकार दर्शनों में आत्मा अमर, स्वयं प्रकाशमान्, आत्म-ज्योति रूप तथा उत्पत्ति विनाश रहित द्रव्य माना है । (५) मीमांसा का आत्मा सम्बन्धी विचार जैन दर्शन के आत्मा सम्बन्धी विचार से इस बात में समानता रखता है कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा अपने पुराने शरीर को छोड़ कर अपने कर्मों को भोगने के लिए परलोक गमन करती है। (६) मीमांसा दर्शन में न्याय वैशेषिक की तरह सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार और ज्ञान नौ विशेषक गुण आत्मा के कहे गये हैं, जिनका मोक्ष में अभाव हो जाता है लेकिन जैन दार्शनिक ऐसा नहीं मानते हैं । (७) न्यायवैशेषिक की तरह मोक्षावस्था में आत्मा को चैतन्य रहित मानने के कारण भी मीमांसा दर्शन का आत्मा सम्बन्धी विचार जैन दर्शन से भिन्न परिलक्षित होता है। (८) मीमांसक दार्शनिक न्याय वैशेषिक और सांख्य दार्शनिकों से इस बात में समानता रखते हैं कि आत्मा के मोक्ष होने का अर्थ समस्त दुःखों का आत्यन्तिक विनाश है । अतः जैन दार्शनिकों से मीमांसकों का यह सिद्धान्त भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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