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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : २९
आत्मा को व्यवहार और निश्चयनय दोनों दृष्टियों से न्याय वैशेषिकादि भारतीय दार्शनिकों की तरह कर्ता मानते हैं । समयसार पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि कुन्दकुन्दाचार्य ने सांख्यों की तरह शुद्धात्मा को अकर्ता माना है।
२२. जैन दार्शनिकों की तरह सांख्य दार्शनिक पुरुष को भोक्ता मानते हैं, लेकिन दोनों में अन्तर भी है। सांख्य दर्शन में आत्मा उपचार से भोक्ता है वास्तविक रूप से नहीं, किन्तु जैन दार्शनिक आत्मा को वास्तविक भोक्ता मानते हैं, काल्पनिक नहीं । समयसार के सर्वं विशुद्ध ज्ञानाधिकार में बताया गया है कि जो जीव अपने स्वभाव को जानता है वह कर्मफलों को जानता है भोगता नहीं है और अज्ञानी जीव कर्मफलों को भोगता है । अतः वैरागी ज्ञानी कर्मों के बन्ध, उदय आदि अनेक अवस्थाओं को जानता है, भोग नहीं करता इसलिए वह अभोक्ता है । यहाँ जो आत्मा को अभोक्ता कहा है वह सांख्य दर्शन से भिन्न है । क्योंकि सांख्य तो यह कहता है कि अज्ञानी पुरुष बुद्धि में अपना प्रतिबिम्ब देखकर अपने आप को कर्मों का भोक्ता मानने लगता है, वास्तव में वह अभोक्ता है । लेकिन जैन दार्शनिक कुन्दकुन्दाचार्य ने सांख्य की तरह बुद्धि की कल्पना नहीं की है । दूसरी बात यह है कि सांख्य दर्शन में पुरुष को चैतन्य स्वरूप तो माना है लेकिन ज्ञान स्वरूप नहीं माना है, इसलिए सांख्य पुरुष को जैन दर्शन की तरह विशुद्ध ज्ञानी नहीं मान सकता है । सांख्य और जैन दोनों दर्शन आत्म स्वरूप की उपलब्धि को आत्मा का मोक्ष मानते हैं ।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि सांख्यों का पुरुष- विचार जैन दर्शन के निश्चय नय की अपेक्षा से वर्णित आत्मविचार से बहुत मिलता होता यदि उन्होंने पुरुष को ज्ञान स्वरूप और सुख स्वरूप मान लिया होता । पं० संघवी जी ने माना है " सहज चेतना शक्ति के सिवाय जितने धर्म गुण था परिणाम जैन सम्मत जीव तत्त्व में माने जाते हैं वे सभी सांख्य योग सम्मत बुद्धि तत्त्व या लिंग शरीर में माने जाते हैं ।"
मीमांसा सम्मत आत्मविचार से तुलना : (१) मीमांसा दर्शन का आत्मा सम्बन्धी विचार न्याय-वैशेषिक के आत्मा सम्बन्धी विचार से मिलता-जुलता
१. समयसार; सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार, गाथा ३२१-२७
२ . वही, गाथा ३१६-२०
३. अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ ।
भुवणतयहं वि झि जिय विहिआणइ विहिणे ॥ परमात्मप्रकाश, १।६६ भारतीय तत्त्वविद्या, पृ० ८३
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