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२६ : जैनदर्शन में आत्म विचार
५. दोनों सम्प्रदाय के दार्शनिक यह मानते हैं कि आत्मा अनेक गुणों और धर्मों का आश्रयरूप है । लेकिन दोनों में मौलिक अन्तर भी है । जैनाभिमत आत्मा अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख - रूप है, जब कि न्याय वैशेषिक ज्ञान, सुख, दुःख इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार को आत्मा के विशेष गुण मानता है । न्याय-वैशेषिक मत में इन गुणों का मोक्ष में विनाश हो जाता है क्योंकि उन्होंने जीवात्मा को अनित्य माना है । जैन मतानुसार आत्मा के स्वाभाविक गुणों का विनाश मोक्ष में नहीं होता है । न्याय-वैशेषिक ने जैन मुक्तात्मा की तरह ईश्वर के ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न को नित्य मानते हैं ।
६. दोनों दार्शनिक आत्मा को अनेक और प्रतिशरीर भिन्न, कर्ता एवं भोक्ता मानते हैं ।
७. जैन दर्शन में आत्मा शरीर प्रमाण है और न्याय-वैशेषिक दर्शन में व्यापक है ।
८. न्याय-वैशेषिक आत्मा के गुणों को आत्मा से भिन्न मानते हैं, किंतु जैन दार्शनिक अभिन्न मानते हैं ।
९. न्याय-वैशेषिक दार्शनिक आत्मा को अमूर्तिक मानते हैं, किंतु जैन दार्शनिक कर्मसम्बद्ध आत्मा को मूर्तिक मानते हैं ।
१०. जैन और न्याय वैशेषिक दोनों आत्मा के पुनर्जन्म को मानते हैं । जैन दार्शनिक मानते हैं कि आत्मा मृत्यु के बाद तीन समय के अन्दर एक या दो समय तक अनाहारक रह कर जन्म ले लेता है । न्याय-वैशेषिक आत्मा विभु होने के कारण आत्मा का स्थानान्तर नहीं मानते हैं । उन्होंने पुनर्जन्म की समस्या नित्य, अणु रूप प्रत्येक शरीर में भिन्न मन की कल्पना करके की है । यही मन एक शरीर से दूसरे शरीर में चला जाता है, यही आत्मा का पुनर्जन्म कहलाता है । सांख्ययोग की आत्मा के साथ तुलना : जैन विमर्श की सांख्य योग दर्शन में विवेचित आत्मा के स्वरूप की तुलना करने पर अनेक समताएँ एवं विषमताएँ परिलक्षित होती हैं, जो निम्नांकित हैं
दर्शनाभिमत आत्मस्वरूप
१. सांख्य दर्शन में आत्मा के लिए 'पुरुष' शब्द प्रसिद्ध है जब कि जैन दर्शन में जीव और आत्मा दोनों शब्दों का प्रयोग परिलक्षित होता है ।
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२. दोनों दर्शनों में आत्मा की 'अजीव' या प्रकृति से भिन्न सत्ता स्वीकार गयी है ।
१. समयसार : कुन्दकुन्दाचार्य, गा० ३०८
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