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२४ : जेनदर्शन में आत्म-1 - विचार
से ज्ञात होता है कि संसारीआत्मा के ये भेद 'नाम कर्म' के आधार पर किये गये हैं । अर्थात् जिन आत्माओं को त्रस नाम कर्म का उदय होता है उन्हें त्रस और जिनको स्थावर नाम कर्म का उदय होता है, उन्हें स्थावर आत्मा कहते हैं । स्थावर आत्मा के पांच भेद हैं : पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति । त्रस आत्माओं का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है । संक्षेप में तत्त्वार्थ सूत्रकार ने संज्ञी और असंज्ञी ये दो भेद किये हैं । इसी प्रकार इन्द्रियों की अपेक्षा दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरेंद्रिय और पंचेन्द्रिय ये पांच भेद उमास्वामी ने इसी ग्रन्थ में किये हैं । मुक्तात्माओं के सामान्य की अपेक्षा कोई भेद नहीं हैं ।
(ञ) जैन और अन्य भारतीय दर्शनों में आत्मा-विषयक भेद :
जैन धर्म-दर्शन के आत्मवाद की अन्य भारतीय दर्शनों में मान्य आत्मवाद से तुलना करने पर अनेक समानताएँ - असमानताएँ परिलक्षित होती हैं :
( १ ) पहली बात यह है कि जैन धर्म-दर्शन में आत्मवाद की मान्यता जैसी प्रारम्भ से थी, वैसी आज भी है । उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ हैं, किन्तु हिन्दू और बौद्ध परम्परा में आत्म-स्वरूप के विषय में समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है ।
(२) दूसरा प्रमुख अन्तर यह है कि हिन्दू और बौद्ध दर्शन में एकान्त - दृष्टि से आत्मा का विवेचन हुआ, किन्तु जैन दर्शन में आत्मा का विचार अनेकान्तदृष्टि से किया गया है ।
जैन और बौद्ध दर्शन-सम्मत आत्मा में भेद : (१) जैन और बौद्ध दोनों दर्शनों में चार्वाक समस्त शरीरात्मवाद का निराकरण किया गया है ।
(२) जैन दर्शन आत्मवादी दर्शन और बौद्ध दर्शन अनात्मवादी दर्शन कहलाता है ।
(३) जैनदर्शन में आत्मा का भावात्मकप्रत्यय उपलब्ध होता है, किंतु बोद्ध दर्शन में आत्मा वस्तु सत्य न होकर काल्पनिक है ।
( ४ ) बौद्ध दर्शन में रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पांच क्षणिक स्कन्धों के अतिरिक्त नित्यआत्मा नाम की कोई चीज नहीं है, किन्तु
१. सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद, २१२, पृ० १७१
२. तत्त्वार्थ, २।११
३. वही, २।१३-१४ ४. भारतीय तत्त्वविद्या,
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पृ० ८०
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