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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : २३ दर्शन, अनन्तमुख और अनन्तवीर्य को आत्मा की स्वभावगुण पर्याय कहा है । " पुद्गलद्रव्य संयोग के कारण आत्मा की होने वाली पर्यायें विभावपर्यायें कहलाती हैं । पुद्गलकर्म के संयोग से मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव गतियों में आत्म प्रदेशों का शरीराकार परिणमन होना आत्मा की विभाव पर्याय कहलाती है । 3 आत्म द्रव्य के स्वाभाविक गुणों में कर्म के संयोग से होने वाली विकृति को माइल्लधवल आदि आचार्यों ने आत्म-द्रव्य की विभावगुण पर्याय कहा है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्याय ज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान आत्म-द्रव्य के ज्ञानगुण की पर्यायें हैं । अतः आत्मा एक द्रव्य है, जिसमें गुण- पर्यायें उपलब्ध होती हैं ।
जैन दर्शन में आत्मा अस्तिकायद्रव्य माना गया है" । जैन दार्शनिक अन्य दार्शनिकों की तरह आत्मा को निरवयव न मान कर सावयव भी मानते हैं । इन्हीं अवयवों को प्रदेश कहते हैं । उमास्वामी ने आत्मा को असंख्यात प्रदेशी कहा है ँ । अतः आत्मा असंख्यात चेतन प्रदेशों की पिण्ड है ।
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आत्मा अनेक हैं— जैन दर्शन में अनन्त आत्माओं की परिकल्पना की गयी है । उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है : "जीवाश्च ८ । इस सूत्र के बहुवचनान्त होने से भी यही सिद्ध होता है कि आत्माएं अनेक हैं । संक्षेप में आत्माओं का वर्गीकरण दो भागों में किया गया है : संसारी और मुक्त' । कर्म- संयुक्तआत्मा को संसारी और कर्मविहीन आत्मा को मुक्त स्थावर के भेद से उमास्वामी ने दो भेद
२. वही, गाथा १९
३. आलापपद्धति
कहते हैं
किये हैं
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१. ( क ) स्वभावगुणव्यंजनपर्याया अनन्तचतुष्टय रूपा आलापपद्धति ( ख ) नयचक्र, गाथा २५
संसारी आत्मा के त्रस और
। तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं
४. नयचक्र, २३
५. द्रव्यसंग्रह २३
६. वक्ष्यमाण लक्षणः परमाणुः स यावतिक्षेत्रे व्यवतिष्ठते स प्रदेश इति व्यवहियते । सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद, ५१८
७. तत्त्वार्थ, ५८, और भी द्रष्टव्य- द्रव्यसंग्रह०, गा० २५
८. तत्त्वार्थ, ५। ३ । और भी देखें इसकी टीकाएं
९. वही, २।१०
१०. वही : २।१२
जीवस्य । नयचक्र
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