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२२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
था, वही उत्तर पर्याय में रहता है । इस प्रकार पूर्व और उत्तर पर्याय में रहने वाला परिणामी नित्य द्रव्य है । यद्यपि अन्य भारतीय दार्शनिक भी आत्मा को नित्य द्रव्य मानते हैं लेकिन वे उसे अपरिणामी मानते हैं । द्रव्य के दूसरे लक्षण के अनुसार द्रव्य में गुण और पर्यायें होती हैं । आत्म-तत्त्व में भी द्रव्य का यह लक्षण मौजूद रहता है । गुण द्रव्य के आश्रित होते हैं । आत्मा में सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के गुण मौजूद रहते हैं । विशेष गुण को असाधारण या अनुजीवी गुण भी कहते हैं । ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्त्व ये छः गुण जैन दार्शनिकों ने आत्मा के विशेष गुण माने हैं । अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, चेतनत्व, प्रदेशत्व और अमूर्तत्व ये आठ आत्म के सामान्य गुण माने जाते हैं । जैन सिद्धान्त में द्रव्य में अनन्त गुण विद्यमान रहते हैं | अमृतचन्द्र आचार्य ने समयसार की आत्मख्याति टीका में आत्मा में रहने वाले अनन्त गुणों में से सैंतालिस शक्तियों का उल्लेख किया है । यहाँ पर उनका देना सम्भव नहीं है ।
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इसी प्रकार पद्मनन्दि ने पंचविंशतिका में आत्मा में रहने वाले सूक्ष्ममहान् आदि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनेक धर्मों के होने का उल्लेख किया । अन्य द्रव्यों की भांति आत्म द्रव्य में भी स्वभाव और विभाव दोनों प्रकार को पर्यायें पाई जाती हैं । आत्मा कभी स्वभावरूप से परिणमन करता और कभी विभावरूप से । आत्मा के स्वभावरूप परिणमन करने से होने वाली पर्यायें स्वभाव पर्यायें कहलाती हैं । ये पर्यायें अत्यन्त सूक्ष्म और अगोचर होती हैं । सिद्धावस्था में चरम शरीर से किंचित् न्यून शरीराकार प्रदेश वाला होनायह आत्म-द्रव्य की स्वाभाविक द्रव्यपर्याय कहलाती है ।" अनन्तज्ञान, अनन्त
१. पचास्तिकाय, २७
२. तद्भावाव्ययं तिथयम् । - तत्त्वार्थ, ५।३१
३. नयचक्र, गा० ११-१२
४. अ० क० भा० : पं० राजमल्ल, २१८
५. जीवस्यज्ञानदर्शन षट् । आलापपद्धति, २
६. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, टीका, गा० २४१
७. समयसार, आत्मख्याति टीका: परिशिष्ट, पृ० ५५६
८. पंचविशतिका, ८।१३
९. नयचक्र, गा० १८
१०. नयचक्र, ( संपादक पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री) परिशिष्ट, आलापपद्धति पृ० २१२
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