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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : २१
अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में लिखा कि सिद्धों के स्पर्शनादि दस द्रव्य प्राण नहीं होते किन्तु सिद्ध होने के पहले इन प्राणों से वे जीवित रहते थे, इसलिए औपचारिक रूप से सिद्ध भी जीव ही हैं । दूसरी बात यह है कि द्रव्य प्राण के अतिरिक्त भाव प्राण भी होते हैं ये भाव प्राण जीव से अभिन्न होते हैं तथा आभ्यन्तर और अविनाशी होते हैं।
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भाव प्राणों को शुद्ध प्राण भी कहते
हैं । द्रव्य प्राणों से जो त्रिकाल में जीवित रहे, केवल यही जीव का लक्षण नहीं है । द्रव्य प्राण तो विनाशशील हैं । अतः जो द्रव्य और भाव प्राणों से त्रिकाल में जीवित रहे, उसे जीव कहते हैं । २ सिद्धों के चैतन्यरूप भाव प्राण होते हैं । इसी कारण से सिद्ध जीव कहलाते हैं । इस प्रकार सिद्ध है कि जीव और आत्मा एक ही तत्व के सूचक हैं ।
कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय में आत्मा का विचार करते हुए कहा है, " आत्मा जीव है, चैतन्य है, उपयोग वाला है, अपने किये गये कर्मों का स्वामी है, पुण्य-पाप कर्मों का कर्ता एवं उन कर्म फलों का भोक्ता, शरीर परिमाण, अमूर्तिक और कर्म संयुक्त है ।" भावपाहुड़ में उपर्युक्त विशेषणों के अतिरिक्त आत्मा को अनादि निधन भी बतलाया है । इन विशेषणों का विवेचन विस्तृत रूप से आत्म-स्वरूप विमर्श में करेंगे । कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने आत्मा के इस स्वरूप का अनुकरण किया है ।
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अविनाशी और असंख्यात ( अखण्ड ) द्रव्य के दो लक्षण उपलब्ध होते हैं उत्पादव्यय घोव्य स्वरूप कहा है ।
आत्मा द्रव्य है : जैन दर्शन में आत्मा स्वतः सिद्ध अनादि, अनन्त, अमूर्तिक, प्रदेशी द्रव्य माना गया है । तत्त्वार्थ सूत्र में इसमें द्रव्य को सत्-स्वरूप कह कर सत् को द्रव्य का यह लक्षण आत्मा में पाया जाता
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है । कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है कि आत्मा की पूर्व पर्याय का विनाश होता है और उत्तरपर्याय की उत्पत्ति होती है, किन्तु द्रव्य-दृष्टि से
जो पूर्व पर्याय में
१. पंचसंग्रह ( प्राकृत), १२।४५ ।
२. वही, १४५
३. तत्त्वार्थवार्तिक, १०४४७, पृ० २५-२६
४. पंचास्तिकाय, गा० २७
५. कत्ता मोह अमुत्तो शरीर मित्तो अणाइणिहणो य ।
दंसणणाणुवयोगो णिद्दिट्ठो जिनवरिदेहि ॥ - भावपाहुड, १४८
६. (क) पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, ३०-३२ ।
७. तत्त्वार्थ सूत्र, ५।२९-३०
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