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२० : जैन दर्शन में आत्म-विचार
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन में आत्म-तत्त्व प्रमुख तथा उपादेय है ।
(झ) जैन दर्शन में आत्मा की अवधारणा और अन्य दर्शनों से भेद
।
आत्मा की अवधारणा जैनदर्शन में प्रमुख एवं मौलिक है । इस दर्शन में वर्णित सात तत्त्वों, नव पदार्थों और छः द्रव्यों में आत्म तत्त्व ही चैतन्यस्वरूप है' । उमास्वामी ने आत्मा को उपयोगस्वरूप कहा है इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपादाचार्य, द्रव्यसंग्रह में नेमि चन्द्राचार्य ने आत्मा को चैतन्यस्वरूप कहा है । उपयोग चैतन्य का ही अन्वयी परिणाम है । चैतन्य आत्मा का ऐसा लक्षण है जो उसे अन्य पुद्गलादि अजीव द्रव्यों से व्यावृत करता है" ।
आत्मा के लिए जैन दर्शन में अनेक नाम प्रयुक्त होते हैं, उनमें से जीव भी एक है । यद्यपि जो जन्म-मरण करे वह जीव कहलाता है और आत्मा शब्द से मुक्त आत्मा का बोध होता है । लेकिन जैन दर्शन में जीव और आत्मा एक ही तत्व के दो नाम हैं । इनमें कोई भेद नहीं है ।
दस प्राणों से जीने वाला जीव कहलाता है, जैन दर्शन में स्पर्शनादि पांच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय ये तीन बल, श्वासोच्छवास और आयु दस द्रव्यप्राण हैं, जो पुद्गलात्मक माने गये हैं । एक जीव के कम से कम चार प्राणस्पर्शेन्द्रिय, काय-बल, उच्छ्वास और आयु होते हैं । इन प्राणों से जो जीता है, जियेगा और पहले जीता था, वह जीव कहलाता है' । कुन्दकुन्दाचार्य के इस जीव के सामान्य लक्षण का सभी आचार्यों ने अनुकरण किया है ।
१. (क) पंचास्तिकायसार, १०९ । (ख) प्रवचनसार, २/३५
२. उपयोगोलक्षणम् - तत्त्वार्थ, सूत्र २८
३. तत्र चेतना लक्षणो जीवः । सर्वार्थसिद्ध, १|४| पृ० १४
४. णिच्छयणयदो तु दु चेदणा जस्स । - द्रव्यसंग्रह, ३
५.
जीव स्वभावश्चेतना, यत् इतरेभ्यो द्रव्येभ्यो मिद्यते । तत्त्वार्थवार्तिक ।
१।४।१४, पृ० २६
६. गोम्मटसार, गा० १३०
७. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति टीका गा० ३०
८. पाणेहिं चदुहि जीवदि जीविस्सदिजो हि जीविदो पुव्वं ।
सो जीवो पाणा पुण पोग्गल दव्वेहि णिव्वता ॥ - प्रवचनसार, २२५५ । (ख) पंचास्तिकाय, गा० ३०
९. द्रष्टव्य — द्रव्यसंग्रह, गा० ३ | तत्त्वार्थवार्तिक, ११४७, पृ० २५
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