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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : १९
वाले आस्रव और बन्ध हैं तथा उन्हें पृथक् करने वाले संवर और निर्जरा हैं । मोक्ष जीव की स्वतन्त्र अवस्था का नाम है । इस प्रकार जीव या आत्म-तत्त्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । पूज्यपादाचार्य ने इष्टोपदेश में कहा है कि जीव पुद्गल से भिन्न है और पुद्गल जीव से भिन्न है । यही तत्त्व है, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है वह सब इसी का ही विस्तार है ।
अमृतचन्द्र आचार्य ने समयसार की आत्मख्याति टीका में कहा है, "शुद्ध नय की अपेक्षा ( दो तत्त्व भी नहीं है) एक मात्र आत्मज्योति ही चमकती है, जो इन भव तत्त्वों में धर्मोरूपेण अनुगत होते हुए भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ती है" । २
अजीव तत्व : जड़ या चैतन्य गुण से रहित तथा सुख-दुःख की अनुभूति से विहीन तत्त्व अजीव कहलाता है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अजीव के पाँच भेद हैं ।
जीवतस्व : जो तत्त्व चेतन स्वरूप है, ज्ञानवान् है, सभी को जानता, रेखता है और सुख-दुःख का अनुभव करता है, उसे जीव कहते हैं । ५
स्वामी कार्त्तिकेय ने जीव-तत्त्व का महत्त्व बतलाते हुए उत्तम गुणों का धाम है, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और तत्त्व है ।
परमात्मप्रकाश टीका में कहा है “नव पदार्थों में शुद्ध जीवास्तिकाय, निज शुद्ध द्रव्य, निज शुद्ध जीव-तत्त्व, निज शुद्ध जीव- पदार्थ जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य है ।"
जैनदर्शन में अविनाशी, अनन्त सुख ही उपादेय है जो मोक्ष में प्राप्त होता है । मोक्ष की प्राप्ति संवर और निर्जरा से होती है । संवर और निर्जरा का कारण रत्नत्रयस्वरूप आत्मा है
१. इष्टोपदेश, श्लोक ५०
२. समयसार : आत्मख्याति टीका, कलश ७
३. पंचास्तिकायसार, १२४-२५
४. द्रव्यसंग्रह, १५
५. पंचास्तिकायसार, १२२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २०४
६.
७. परमात्मप्रकाश, १७, पृ० १४
८. द्रव्यसंग्रह, टीका चूलिका, गा० २८, पृ० ८०
कहा है कि जीव ही सब तत्त्वों में परम
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