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१८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
अनुभयात्मक कोटियों से विनिर्मुक्त कह कर स्पष्ट कहा कि बौद्ध मत न आत्मवादी है और न अनात्मवादी है । स्पष्ट है कि धातु और स्कन्ध का समष्टि रूप ही आत्मा है। धातुओं के संघात से भिन्न आत्मा की परमार्थ सत्ता नहीं है। आत्मदृष्टि का उच्छेद करना चाहिए। यह कथन करने के कारण महायानवादी पुद्गलनैरात्म्यवादी कहलाने लगे। इसी प्रकार से समस्त धर्मों को अनुत्पन्न बतलाने से वे धर्म नैरात्मवादी के रूप में प्रसिद्ध हुए। बौद्ध दर्शन में आत्मविज्ञान की कल्पना आत्मवादियों के आत्मा के समान ही है जिसका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में करेंगे।
. प्रज्ञापारमिता की व्याख्या करते हुए स्व के प्रवाह को आत्मा कहा है । उसी में रूपादि को आत्मरूप कह कर आत्मा के स्थिर तत्त्व होने का निषेध किया गया है। (ज) जैनदर्शन में आत्म-तत्त्व विचार
जैन दर्शन में आत्मा का विवेचन तत्त्व विचार के रूप में आरम्भ होता है । जैन दर्शन में सात तत्त्व माने गये हैं, जिसमें प्रथम जीव या आत्मा है तथा अन्य छः अजीव या जड़ हैं । उन सभी का महत्त्व जीव के कारण है । ये सात तत्त्व इस प्रकार है-(१) जीव, (२) अजीव, (३) आस्रव, (४) बन्ध, (५) संवर, (६) निर्जरा, और (७) मोक्ष । संक्षेप में तत्त्व दो प्रकार के हैं, जीव
और अजीव; क्योंकि सात तत्त्वों में जीव और अजीव दो ही प्रधान हैं, शेष तत्त्व जीव और अजीव के ही पर्याय हैं। जीव और अजीव को सम्बद्ध करने
१. माध्यमिक कारिका, १७।२० २. वही, १८१६ ३. अहिताहमानत्वेन स्व सन्तान एवात्मा । प्रज्ञापारमिता टीका, पृ० १४ ४. आत्मेति न स्थान्तव्यम् । वही, पृ० १८ ५. (क) तस्य भावस्तत्वम् ।""सर्वार्थसिद्धि, ११२, १०८ (ख) तत्त्वं सल्लाक्षणिक सन्मानं वा यतः स्वतः सिद्धम् ।
तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पकम् ।।..."पंचाध्यायी,
पूर्वार्ध, का० ८ ६. तत्त्वार्थसूत्र, १४ ७. प्रवचनसार, २।३५ ८. समयसार, आत्मख्याति टीका, गा० १३, कलश ३१ ९. जीवाजीवौ हि धर्मिणो तद्धर्मास्त्वास्रवादय इति । "तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक :
१।४।४८, पृ० १५६
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