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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : १७ नहीं होता है कि उनका अभिप्राय शाश्वत आत्मा को स्वीकार करना है। उनके इस कथन का आधार इससे आगे आत्मा को वेदना धर्म वाला बतलाना है। स्पष्ट है कि शाश्वतवाद में मान्य आत्मा की दृष्टि से बौद्ध दर्शन का चिन्तन अनात्मवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसमें क्षणिक संवेदनाओं से पृथक किसी नित्य आत्मा को मान्य नहीं किया गया है २ । दीघनिकाय में सीलक्खन्धवग्ग के ब्रजालसुत्त और मज्झिमनिकाय के मूलपण्णासकसुत्त का अभिप्राय यही है कि आत्मा स्कन्ध संघात से भिन्न नहीं है।
जैसा कि हम देखेंगे कि बौद्ध दर्शन (पालि-त्रिपिटक) जैन दर्शन की भांति इन्द्रिय, विषय, मन, विज्ञान, वेदना और तृष्णा, जो पुद्गल रूप है, उन्हें आत्मा नहीं मानता है । लेकिन जैन दर्शन से बौद्ध दर्शन इस अर्थ में भिन्न है कि वह इनसे भिन्न आत्मा की कल्पना ही नहीं करता है, जब कि (चैतन्य) दर्शन एक ऐसे आत्मतत्त्व की कल्पना करता है, जो उपयोग स्वरूप तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप द्रव्य है।
हीनयान बौद्ध दर्शन में वसुबन्धु ने स्पष्ट कहा है कि पंचस्कन्धों को छोड़ कर आत्मा नामक कोई तत्त्व नहीं है ।
महायान दर्शन में भी स्वप्रवाह को आत्मा कहा है और नित्य आत्मा के होने का निषेध किया गया है । दिङ्नाग जैसे आचार्यों ने आत्मा और अनात्मा को संज्ञा मात्र कह कर उनकी पारमार्थिक सत्ता न होने का उल्लेख किया है। महायानदर्शन में अनात्मवाद या नैरात्म्यवाद का अभिप्राय, आत्मा का उच्छेद नहीं है। इस कथन की पुष्टि महायानसूत्र और लंकावतार में आये हए प्रसंगों से हो जाती है। फिर भी वे आत्मा को शाश्वत न मान कर शरीर घटक धातुओं का समुच्चय कहते हैं । नागार्जुन ने तत्त्वमात्र को सत्, असत्, उभय और
१. मज्झिमनिकाय १।२८।३४ २. मज्झिमनिकाय ,उपरिपण्णासक, २।२।१-६ ३. कुन्दकुन्द : समयसार, ३९-५५ ४. नात्मास्त्रि स्कन्धमानं तु कर्मश्लेभिसंस्कृतम् । अभिधर्मकोश, ३।१८ ५. (क) प्रज्ञापारमिता, पिण्डार्थ ५०
(ख) लंकावतार सूत्र, १०।४२९ ६. महायानसूत्र, पृ० १०३ ७. लंकावतार, २।९९, २१६
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