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________________ १६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार ही यथार्थसत् है । क्षणिकवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन भी उन्होंने अपने प्रसिद्ध कारण कार्य सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वारा सिद्ध किया है । क्षणिकवाद सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व क्षणिक है, कोई भी वस्तु दो क्षणों तक विद्यमान नहीं रहती है। अतः कोई भी वस्तु स्थायो नहीं है । क्षणिकवाद सिद्धान्त के आधार पर बौद्ध दर्शन में आत्मा अनित्य ही नहीं बल्कि क्षणिक माना गया है । इसलिए बौद्धों का आत्मवाद सिद्धान्त 'अनात्मवाद' के नाम से प्रसिद्ध है। बौद्ध इस प्रकार की आत्मा में विश्वास नहीं करते थे जो स्थायी हो। उन्होंने स्थायी तत्त्व को भ्रामक कहा था। शाश्वत आत्मा में विश्वास करने वालों का मज़ाक करते हुए उन्होंने कहा कि यह मान्यता कल्पित सुन्दर नारी के प्रति अनुराग रखने की तरह हास्यास्पद है। मस्तिष्क के विचारों और संवेदना के अतिरिक्त आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है । उपनिषद्, वैदिक दर्शन और जैन दर्शन में मान्य आत्मा के विषय में भगवान बुद्ध चुप दिखलाई पड़ते हैं। दूसरे शब्दों में आत्म-तत्त्व सिद्धान्त की बौद्धों की व्याख्या यह प्रकट नहीं करती कि चैतन्य का आधारभूत कोई स्थायी आत्मा है । बौद्ध दर्शन में आत्मा-सम्बन्धी व्याख्या दो प्रकार से की गयी है । (१) पंचस्कन्धों के आधार पर और (२) नाम-रूप के आधार पर । इनका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में करेंगे। बौद्ध दर्शन के 'अनत्त' को समझ लेने पर उनकी आत्मा-सम्बन्धी विचारणा या व्याख्या को सरलता से समझा समझाया जा सकता है । अनत्त को व्याख्या विनयपिटक के महावग्ग में आये हुए अनत्तलक्खण सुत्त में उपलब्ध है ।' वहाँ पर रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पंचस्कन्धों को अनत्त सिद्ध किया गया है। उन्हें ऐसा मानने में तर्क दिया गया है कि वे अनित्य एवं दुःख रूप हैं । पंचस्कन्धों को अनत्त कह कर बतलाया गया है कि इन स्कन्धों से भिन्न कोई अन्य सूक्ष्म तत्त्व नहीं है जिसे आत्मा कहा जा सके। जिसे ज्ञान हो या जो निर्वाण प्राप्त करता हो ऐसे शाश्वत तत्त्व के विषय में पालि त्रिपिटक में कोई संकेत नहीं है। महावग्ग के अनत्तलक्खण सुन के अतिरिक्त अभिधम्मपिटक के कथावत्थ में भी इसी प्रकार अनन्ता की व्याख्या की गयी है। आत्मा के शाश्वत स्वरूप के विषय में भगवान् बुद्ध सर्वत्र मौन ही परिलक्षित होते हैं । 4 इस मौन से ऐसा प्रतीत १. विनयपिटक, १५८०२०-२३ २. अभिधम्म पिटक, १११११२ ३. दीघनिकाय, महावग्ग, २११ ४. मज्झिम निकाय मूलपण्णासक, ३५।३।५-२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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