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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : १५
(क) न्याय-वैशेषिक : न्याय-वैशेषिक दर्शन वस्तुवादी दर्शन है। इस परम्परा में आत्मा को शरीरादि से भिन्न एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है।' इस दर्शन के चिन्तकों ने आत्मा को स्वभाव से जडवत् बतलाया है । अन्य जड़ द्रव्यों से इस द्रव्य में यह भेद किया गया है कि चैतन्य, जो आत्मा का स्वाभाविक नहीं आगन्तुक गुण है, की उत्पत्ति आत्मा में ही हो सकती है। इस तरह आत्मा को चैतन्य या ज्ञान का आधार माना गया है। इस विषय में उनका तर्क है कि ज्ञान या चैतन्य की उत्पत्ति जात्मा का मन के साथ और मन का इन्द्रियों के साथ, और इन्द्रियों का विषय के साथ सन्निकर्ष या संयोग होने पर होती है अपने इस सिद्धान्त के कारण न्याय-वैशेषिक आत्मा को चैतन्य स्वरूप न कह कर चैतन्यवान् कहना अभीष्ट समझते हैं । जैसा कि कहा जा चुका है मुक्तावस्था में शरीरादि का अभाव होने से उसे चैतन्य विहीन माना है। न्याय-वैशेषिक का यह सिद्धान्त अन्य भारतीय दार्शनिकों को सन्तुष्ट न कर सका, फलतः उसे कड़ी आलोचना का विषय बनना पड़ा, जैसा कि हम आगे देखेंगे। उन्होंने आत्मा को क्षेत्रज्ञ, निरन्वयी, शाश्वत, अविनाशी, व्यापक, ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, पाप-पुण्य कर्मों का भोक्ता, प्रति शरीर भिन्न, अनेक और अपरिणामी बताया है । बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वष और प्रयत्न आत्मा के विशेष गुण तथा संख्यादि बताये गये हैं । (छ) बौद्ध दर्शन में आत्म-चिन्तन : ___ बौद्ध दर्शन में आत्म-तत्व का सिद्धान्त अनित्यवाद या क्षणिकवाद के सिद्धान्त पर आधारित है। बौद्ध दर्शन का मंतव्य है कि परिवर्तन या क्षणिकता
१. न शरीरस्य चैतन्य.......... । परिशेषादात्मकर्यत्वात् तेनात्मा समधिगम्यते ।
प्रशस्तदेवः-प्रशस्तपादभाष्यम्, पृ० ४९-५० २. द्रष्टव्य : डा० राधाकृष्णन् : भारतीय दर्शन (भाग २), पृ० १४८-४९ । ३. (क)....."बुद्धयादीनां गुणानामाश्रयो वक्तव्यः । स एवात्मा । .... केशव
मिश्र, तर्क भाष्य, पृ० १४८ ।
(ख) ज्ञानाधिकरणमत्मा । तर्कसंग्रह, पृ० १२ ४. (क) इच्छाद्वेष"लिंगम् । न्यायसूत्र १।१।१०
(ख) सुखदुःखादिवैचित्र्यात् प्रतिशरीरं भिन्नः । ....तस्य सामान्यगुणाः सुखादयः पंच, बुद्धयादयो नव विशेषगुणाः । केशवमिश्र : तर्कभाष्य, पृ० १९० (ग) विभवान्यहानाकाशस्तथा आत्मा। महर्षि कणाद : वै० सू०,७।१।२२ (घ) स च सर्वत्र कार्योपलम्भाद् विभुः । परममहत्परिमाणवानित्यर्थः । विभुत्वाच्च नित्योऽसौ व्योमवत् । केशव मित्र : तर्क भाष्य, पृ० १४९
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