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१४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार :
जैसा कि हमने कहा कि भारतीय दर्शन में आत्म-सम्बन्धी चिन्तन का सूत्रपात उपनिषदों में हुआ किन्तु उपनिषदों का चिन्तन वक्तव्यों के रूप में है, वहां आत्म-सम्बन्धी कथनों को तर्क द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं दिखाई पड़ता। ऐसा नहीं कि उपनिषदकारों के मन में आत्म-तत्त्व को लेकर विमर्शमूलक प्रश्न नहीं उठते, किन्तु वे प्रश्न भी प्रायः सांकेतिक हैं, उन पर विशद् रूप में तर्कानुप्राणित विचारणा प्रायः उपलब्ध नहीं होती। उदाहरण के लिए बृहदारण्यकोपनिषद् में कौतूहल के साथ कहा गया है--विज्ञातारमरे केन विजानीयात्अर्थात् जो ज्ञाता है उसे किसके द्वारा जाना जाय ? इस प्रश्न का समाधान संकेत रूप में भले ही हुआ हो, तर्क द्वारा पुष्ट रूप में निरूपित नहीं हुआ है। इसके विपरीत बाद के दर्शन अपने आत्म-सम्बन्धी चिन्तन को प्रमाणों अथवा तर्कों द्वारा पुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं।
इतनी भूमिका के बाद हम आत्म-सम्बन्धी विभिन्न मंतव्यों का अलग-अलग दर्शनों के अनुसार वर्णन करेंगे । अन्त में हम जैन दर्शन के एतद् सम्बन्धी समन्वयकारी विचारों का विवरण देंगे। (च) वैदिक अथवा हिन्दू के दर्शन में आत्म-चिन्तनः ___ आत्म-तत्त्व के चिन्तन की जो धारा उपनिषदों में प्रवाहित हुई, उसका विकास वहीं समाप्त नहीं हुआ । कालक्रम से विकसित होने वाले विविध वैदिक दर्शनों में आत्म-तत्त्व चिन्तन का प्रधान (मूलभूत) विषय बन गया। उपनिषदुत्तरकालवर्ती दर्शनों ने आत्म-स्वरूप का स्वतन्त्र दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक चिन्तन किया और उस विषय में अपनी-अपनी धारणाएँ प्रस्तुत की । उपनिषदों में उपलब्ध आत्मा के विविध रूपों के परिणामस्वरूप हिन्दू-दर्शनों में आत्मा-सम्बन्धी विविध विचारधाराओं का प्रतिपादन हो सका है। सर्वदर्शनसंग्रह, षड्दर्शनसमुच्चय आदि में प्राचीन आचार्यों ने न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग और पूर्व-मीमांसा तथा उत्तरमीमांसा (वेदान्त) को वैदिक दर्शन कहा है । क्योंकि इन दर्शनों में उपलब्ध दार्शनिक चिन्तन का प्रमुख आधार वेद-वाङ्मय है । जैसा कि हम देखेंगे कि हिन्दू दर्शनों में आत्मस्वरूप के विषय में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा इसलिए उनमें एकरूपता नहीं है। इस दृष्टि से यह परम्परा बौद्ध परम्परा से समता रखती प्रतीत होती है । जैन धर्म-दर्शन में ऐसी बात नहीं है। वहां आगमकालीन साहित्य से लेकर आज तक उपलब्ध दार्शनिक साहित्य का आलोड़न करने से प्रतीत होता है कि आत्मवाद की जो मान्यता ऋषभदेव के समय में थी वैसी ही आज भी है। उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। वैदिक दर्शनों में आत्मा सम्बन्धी विविध विचारणाएं उपलब्ध होने के कारण प्रत्येक वैदिक परम्परा का अलग-अलग उल्लेख करना आवश्यक है। "
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