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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : १३
(ङ) दार्शनिक निकायों में आत्मचिन्तनः
वैचारिक समानताओं और विषमताओं के आधार पर हम भारत के आत्म सम्बन्धी चिन्तन को मोटे तौर पर तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं।
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१. अद्वैत वेदान्त तथा सांख्य: इस दार्शनिक निकाय के दार्शनिकों के अनुसार आत्म-तत्त्व (ब्रह्म, आत्मा, पुरुष ) मूलतः निर्गुण और निष्क्रिय है । उसमें सुखदुःख आदि मनोदशाएँ अध्यस्त या कल्पित हैं । अद्वैत वेदान्त के अनुसार तथाकथित मानसिक अवस्थाएँ अन्तःकरण का धर्म हैं, जब कि सांख्य के अनुसार वे बुद्धि की स्थितियां या अवस्थाएं हैं । इन दार्शनिकों के अनुसार बन्धन और मोक्ष भी वास्तविक नहीं अपितु आभासमात्र हैं ।
२. न्याय-वैशेषिक और प्रभाकर-मीमांसक : इन दार्शनिकों के अनुसार आत्मा में इच्छा, राग द्वेष, सुख, दुःख, प्रयत्न और ज्ञान आत्मा के गुण माने जाते हैं । किन्तु मुक्तावस्था में वे आत्मा में नहीं माने जाते हैं । इस वर्ग के दार्शनिकों ने चैतन्य को आत्मा का गुण माना है । लेकिन इसे आत्मा का स्वाभाविक गुण न मान कर आगन्तुक गुण कथित किया है । आत्मा को उन्होंने एक ऐसा द्रव्य स्वीकार किया है जो स्वरूपतः अचेतन या जड़ होने के बावजूद चैतन्य को धारण करने की क्षमता रखता है । उनकी कल्पना है कि आत्मा का मन से, मन का इन्द्रिय से इन्द्रिय का विषयों से संयोग होने पर ज्ञान या अनुभव उसमें उत्पन्न होता है । इस प्रकार के सम्बन्ध के बिना ज्ञान या अनुभव की उत्पत्ति नहीं हो सकती । चूँकि मुक्तावस्था में आत्मा के मन और इन्द्रियां नहीं होती हैं । इसलिए उस अवस्था में उसको पदार्थों का ज्ञान भी नहीं होता । वास्तव में तब उसमें चैतन्य भी नहीं होता ।
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३. जैनदर्शनका मत : जैन दर्शन का मत उक्त दोनों मन्तव्यों का समन्वय करता प्रतीत होता है । संसारावस्था में आत्मा में सुख-दुःख आदि वास्तविक रूप से बँधे रहते हैं । किन्तु मुक्तावस्था में स्वाभाविक ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य जिसे अनन्त चतुष्टय कहते हैं, उसमें रहते हैं और कर्मजन्य सुखादि का अभाव हो जाता है । जैन दर्शन प्रकारान्तर से आत्मा में अद्वैत वेदान्त की भांति चेतना और अनन्द को आत्मा का स्वरूप मानता है । किन्तु अद्वैत वेदान्त में चेतना और आनन्द आत्मा के गुण नहीं माने जाते, वेदान्ती आत्मा को चैतन्य रूप एवं आनन्दरूप मानते हैं ।
१. ( क ) द्रष्टव्य - सांख्यकारिका ( ईश्वरकृष्ण ), का० ११, १७ एवं १९ (ख) भारतीय दर्शन ( भाग २ ), डा० राधाकृष्णन् : पृ० ४६९ से आगे ।
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