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१२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
सुख-दुःख का अनुभवकर्ता है जीवात्मा कहलाता है। मुण्डकोपनिषद् में एक वृक्ष पर बैठे हए दो पक्षियों के उदाहरण द्वारा जीव और ब्रह्म में अन्तर प्रदर्शित किया गया है। जीव ऐसा पक्षी है जो फलों का स्वाद लेता है और आत्मा या ब्रह्म केवल द्रष्टा या साक्षी रूपी पक्षी के समान है । जोव और ब्रह्म दोनों एक शरीर में अन्धकार और प्रकाश की तरह रहते हैं । जीव और ब्रह्म में व्यावहारिक दृष्टि से उपनिषदों में अन्तर किया गया है । पारमार्थिक दृष्टि से दोनों में अद्वैत है । दोनों के एकाकार के विषय में मुण्डक में कहा है-प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म लक्ष्य है । अप्रमत्तता पूर्वक बाण चलाना चाहिए । जो बेधन करने वाला है, वह बाण के समान हो जाता है, एवं लक्ष्य रूपी ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है । इसी प्रकार प्रश्नोपनिषद् में कहा है कि वह सर्वोपरि अक्षर आत्मा में विलीन हो जाता है । वह सर्वज्ञ और सर्वात्मा हो जाता है । इन उद्धरणों में जीवात्मा और ब्रह्म में तादात्म्य होना बतलाया गया है । डा० राधाकृष्णन् ने भारतीय दर्शन' में इसका विस्तृत उल्लेख किया है ।
मुक्तावस्था में अविद्या के क्षय हो जाने से जीवात्मा यथार्थ स्वरूप-लाभ कर लेता है। उपनिषदों में कहा गया है कि जिस प्रकार नदी समुद्र में मिलकर समुद्राकार हो जाती है अर्थात् विलुप्त हो जाती है उसी प्रकार जीवात्मा ब्रह्म से मिलकर मोक्षावस्था में एकाकार हो जाता है। ब्रह्म आनन्द स्वरूप है, इसलिए मोक्षावस्था भी उपनिषदों में आनन्दस्वरूप बतलाई गयी है । यही जीवात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति है । ब्रह्म के साथ एकाकार होकर मुक्तात्मा अपने को संसार का सृष्टा मानने लगता है । तैत्तिरीयोपनिषद् में इसका अच्छा विवेचन किया गया है। याज्ञवल्क्य ऋषि ने मैत्रेयी को जीवात्मा और ब्रह्म के तादात्म्य को जल में घुले हुए नमक के सदृश बतलाया है । इस प्रकार जिस आत्मस्वरूप का क्षत्रियों ने ब्राह्मण ऋषि मुनियों को उपदेश दिया, उपनिषदों में उस आत्मतत्त्व के विषय में विविध विचार प्रकट किये गये हैं, जो आत्मस्वरूप चिन्तन के विकास का परिणाम है। १. मुण्डकोपनिषद्, ७।२५।२, ३।१४।१, ८।१४।१ २. वही, २।२।२ । सर्व एकीभवन्ति ।-वही, ३।२।७ ३. प्रश्नोपनिषद्, ४।९ ४. स सर्वज्ञः सर्वो भवति ।-वही, ४।१० ५. भारतीय दर्शनः डा. राधाकृष्णन्, भाग १, पृ० २१७-२२२ ६. (क) मुण्डकोपनिषद्, ३।२।८ । (ख) प्रश्नोपनिषद्, ६।५ ७. तैत्तिरीयोपनिषद्, ३ ८. भारतीय दर्शन : डा० राधाकृष्णन्, भाग १, पृ० २२०
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