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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ११
स्थावर एवं जंगम रूप संसार का मूल तत्त्व या सार है । आत्मा मनुष्य के अन्दर रहने वाला चेतन तत्त्व है।
इस प्रकार दोनों तत्त्व ब्रह्म और आत्मा का अर्थ भिन्न है । एक संसार का मूल स्रोत है और दूसरा मनुष्य के स्वरूप का सार है। यद्यपि ये दोनों सत्तायें मूल अर्थ में भिन्न हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि आत्मा और ब्रह्म की अवधारणाओं का न्यूनाधिक महत्व है । उपनिषदों में ही ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि इन दोनों तत्त्वों का बराबर महत्व है। इसका कारण यह है कि परम सत्य ज्ञान और अनन्त स्वरूप है।' तैत्तिरीय उपनिषद् में दोनों तत्त्वों को एक मानते हुए कहा गया है कि ब्रह्म ही आत्मा है । तैत्तिरीयोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद् और बृहदारण्यकोपनिषद् आदि में कहा गया है कि "वह ब्रह्म जो पुरुष के अन्दर है और जो सूर्य में है दोनों एक हैं । बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा है कि यह समस्त विश्व ब्रह्म ही है,४ अपनेअपने हृदय में स्थित आत्मा ब्रह्म है । इसी प्रकार श्वेतकेतु को उपदेश देते हुए कहा गया है कि नाम-रूप जिसके अन्दर है, वही ब्रह्म है, वही अमृत है, वही आत्मा है । इस कथन से ब्रह्म और आत्मा का तादात्म्य सिद्ध होता है “अहं ब्रह्मास्मि' 'तत् त्वमसि'८ 'प्रज्ञानं ब्रह्म' 'अयमात्मा ब्रह्म' 'सर्व खलु इदं ब्रह्म" 'एकमेवाद्वितीयम्' आदि' महावाक्यों के द्वारा आत्मा और ब्रह्म में अभिन्नता प्रकट करके आत्मा और ब्रह्म की अवधारणाओं का बराबर महत्व प्रतिपादित किया गया है। ___ जीव और ब्रह्म : उपनिषदों में आत्मा के लिए ब्रह्म के अलावा जीव शब्द का प्रयोग भी उपलब्ध होता है। संसारी आत्मा जो कर्मों का कर्ता, भोक्ता, १. तैत्तिरीयोपनिषद्, २।१ . २. वही, ११५ ३. (क) वही, २.८।३.१० । (ख) छान्दोग्य, ३।७।१४। २-४ । (ग) बृहदारण्यक,
५१५२ । (घ) मुण्डकोपनिषद्, २।११० । ४. बृहदारण्यक, २।५।१९ ५. वही, २५।१ ६. छान्दोग्य, ७।२५।२॥३॥१४॥१, ८।१४।१ ७. बृहदारण्यक, ९।४।१० ८. छान्दोग्य, ६।८।७ ९. माण्डूक्य, २ १०. छान्दोग्य, ३११४१ ११. वही, ६।२।१
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