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परिशिष्ट २ अन्तर्मुहूर्त : मुहूर्त से कम और आवली से अधिक अन्तर्मुहूर्त
कहलाता है। अक्ष : अक्ष का अर्थ आत्मा होता है, जो यथायोग्य सर्वपदार्थों
को जानता है, उसे अक्ष या आत्मा कहते हैं। अगाढ़ : यह सम्यग्दर्शन का एक दोष है । वृद्ध आदमी के हाथ
में रहती हुई लाठी के कम्पन की तरह क्षयोपशम सम्यगदर्शन देवगुरु और तत्त्वादि की श्रद्धा में स्थित रहते हुए संशय करना (सकम्प होना) अगाढवेदक सम्यग्दर्शन
कहलाता है। अगारी : अणुव्रती श्रावक अगारी कहलाता है। अज्ञान: जैनागमों में अज्ञान शब्द के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं
(१) ज्ञान के अभाव में यह कर्म के उदय से होता है, इसलिए इसे औदायिक अज्ञान कहते हैं । (२) मिथ्या
ज्ञान के अर्थ में यह क्षायोपशमिक अज्ञान कहलाता है। अचेतन : जो पदार्थों को स्वयं नहीं जानता है, वह अचेतन गुण
कहलाता है। अतिचार : व्रत के एक अंश का खण्डित होना अतिचार
कहलाता है। अध्यात्म : आत्मा सम्बन्धी अनुष्ठान या आचरण अध्यात्म है और
जिस शास्त्र में आत्मतत्त्व सम्बन्धी व्याख्यान हो, वह
अध्यात्म शास्त्र कहलाता है। अनन्त : जिसका अन्त नहीं है, वह अनन्त है। अनगार : उत्तम संयम (चारित्र) वाले मुनि को जैनागम में अन
गार या अनगारी कहते हैं। अनाचार : विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखना अनाचार है। अनाहारक : उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण न करना
अनाहारक है। अनिद्रिय : जिसके इन्द्रियाँ नहीं होती हैं, उसे अनिन्द्रिय कहते हैं । अनुयोग : जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग
कहते हैं-(१) प्रथमानुयोग, (२) करणानुयोग, (३) चरणानुयोग, और (४) द्रव्यानुयोग ।
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