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________________ ( २९८ ) अनुयोगद्वारः अर्थ के जानने का उपायभूत अधिकार अनुयोगद्वार कहलाता है। अनेकान्त : एक वस्तु में मुख्यता और गौणता की अपेक्षा अस्तित्व नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्म युगलों का प्रति पादन करना अनेकान्त है । अर्हन्त : कर्मों का विनाश करके परमात्मा बनने की पहली (जीवनमुक्त) अवस्था को जैनागम में अर्हन्त कहते हैं। अलोक : लोक के अतिरिक्त अनन्त आकाश अलोकाकाश __ कहलाता है। अवगाहना : जीवों के शरीर की ऊँचाई-लम्बाई आदि को अवगाहना कहते हैं। अवर्णवाद : गुणवाले महान् पुरुषों में जो दोष नहीं हैं, उनको उन दोषों से युक्त कहना अवर्णवाद कहलाता है। असत् : जो अविद्यमान हो । अहिंसा : मन, वचन और काय से किसी जीव को किंचित् भी दुःख न देना तथा उसको पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। आकाश : खाली जगह को आकाश कहते हैं । जैनदर्शन में यह एक व्यापक, अखण्ड, निष्क्रिय और अमर्त द्रव्य माना जाता है। यह समस्त द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देता है। आगम : आचार्य परम्परा से आगत मूल सिद्धान्तों का जिसमें कथन हो, वह आगम कहलाता है। आत्माश्रय : स्वयं अपने लिए अपनी अपेक्षा करना आत्माश्रय नामक दोष है। आबाधा : कर्म का बंध हो जाने के बाद जितने समय तक वह उदय या उदीरणा को प्राप्त नहीं होता, उतने काल का नाम आबाधा काल है। आम्नाय : शुद्ध उच्चारण द्वारा पाठ को बार-बार दोहराना आम्नाय है। आवली : काल का एक प्रमाण विशेष । जघन्य युक्तासंख्यात समयों की एक आवली होती है। - ईर्यापथ : ईर्या का अर्थ योग है। जिन कर्मों का आस्रव होता है लेकिन बन्ध नहीं होता, बल्कि बिना फल दिये ही जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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