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________________ ( २९३ ) है। किन्तु निश्चय नय से शुद्धात्मा अजन्तु है, क्योंकि मुक्त आत्मा को संसार में जन्म धारण नहीं करना पड़ता है। ४. क्षेत्रज्ञ-आत्मा को क्षेत्रज्ञ भी कहा जाता है। जीव का स्वरूप क्षेत्र कहलाता है और वह अपने स्वरूप एवं लोकालोक रूप क्षेत्र को जानता है, इसलिए वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है। ५. पुरुष--आत्मा पुरु अर्थात् स्वादिष्ट या सुन्दर भोगों में प्रवृत्ति करता है, इसलिए वह पुरुष भी कहलाता है । ६. पुमान्-आत्मा को पुमान् इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह अपने आप को तप आदि के द्वारा पवित्र करता है, इसलिए वह पुमान् कहलाता है। ७. आत्मा-संसारी जीव नरकादि अनेक पर्यायों में सदैव गमन करता रहता है, इसलिए वह आत्मा कहलाता है। दूसरी बात यह है कि सभी गमनात्मक धातुएँ ज्ञानात्मक अर्थ में भी प्रयुक्त होती हैं । अतः ज्ञान सुखादि गुण रूप परिणमन करने वाला तत्त्व आत्मा कहलाता है अथवा मन, वचन, काय की क्रिया द्वारा यथासम्भव तीव्रादि रूप से वर्तने वाला तत्त्व आत्मा है।' ८. अन्तरात्मा-संसारी आत्मा को अन्तरात्मा भी कहते हैं, क्योंकि ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के भीतर वहं रहता है। ९.ज्ञ-ज्ञान गण से युक्त है, इसलिए जीव को 'ज्ञ' भी कहा गया है। इसी कारण इसे ज्ञानी भी कहते हैं।' १०. वक्ता-संसारी जीव को वक्ता भी कहते हैं, क्योंकि वह १-[क] व्यवहारेण चतुर्गतिसंसारे नानायोनि जायत: इति जंतु संसारीत्यर्थ । निश्चयेन जन्तुः । गोम्मटसार (जीवकाण्ड),जीवप्रबोधिनी टीका, ३३६। [ख] जन्तुश्च जन्मभाक् ।-आदिपुराण ( महापुराण ), २४।१०५ । २-क्षेत्रं स्वरूपमस्य स्यात्तज्ज्ञानात् स तथोच्यते । -वही, २४।१०५ । ३-पुरुष: पुरुभोगेषु शयनात् परिभाषितः।-वही, २४।१०६। ४-पुनात्यात्मानमिति च पुमानिति निगद्यते । -आदिपुराण, २४।१०६ । ५-भवेष्वति सातत्याद् एतीत्यात्मा निरुच्यते ।—वही, २४।१०७। द्रव्य- . संग्रह टीका, गा० ५७ । ६-आदिपुराण, २४।१०७ । ७-वही, २४।१०८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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