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सत्य या असत्य, योग्य-अयोग्य वचनों को बोलता है। किन्तु निश्चय नय की अपेक्षा वह वक्ता नहीं है।
११. पुद्गल-संसारी जीव को पुद्गल भी कहा जाता है, क्योंकि व्यवहार रूप से कर्म और नोकर्म पुदगलों को अर्थात ज्ञानावरणादि कर्म और शरीरों के माध्यम से छह प्रकार के संस्थानों को पूर्ण करता है अर्थात् गलाता है। बौद्ध दर्शन में भी आत्मा को पुद्गल कहा गया है। .. १२. वेद-जीव सुख-दुःख का वेदन करता है, जानता है, अनुभव करता है, इसलिए वह वेद कहलाता है। .. १३. विष्णु-व्यवहार की अपेक्षा कर्मों के प्राप्त देह को या समुद्धात अवस्था में समस्त लोक को व्याप्त कर लेता है एवं निश्चय नय से समस्त ज्ञान से व्याप्त होता है, इसलिए वह विष्णु कहलाता है ।
१४. स्वयम्भू-जीव को स्वयंभू भी कहा गया है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति का कोई अन्य कारण नहीं है। वह स्वयं ज्ञानदर्शन स्वरूप से परिणत होता रहता है।'
१५. शरीरी-जीव को शरीर भी कहा जाता है, क्योंकि वह औदारिकादि सरीरों को आधार बनाकर उसमें रहता है। उपनिषद् में भी अनेक जगह जीवात्मा को शरीरी कहा गया है।
१६. मानव-संसारी जीव को मानव भी कहा जाता है, क्योंकि वह मानवादि पर्यायों में परिणत होता रहता है। किन्तु निश्चय नय की अपेक्षा मनुष्यादि पर्यायों में परिणत होने के कारण जीव को मानव नहीं कहा गया है, किन्तु मनु ज्ञान को कहते हैं और ज्ञान १-गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) जीवप्रबोधिनी टीका, ३३६ । २-वही, ३३६ । ३-वही, ३३६ । ४-व्यवहारेण स्वोपज्ञ देहं समुद्धते सर्वलोकं, निश्चयेन ज्ञानेन सर्व वेष्टि __व्याप्तोतीति विष्णुः । वही, ३३६ । ५-वही, ३३६ ।
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