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जन्तु, मानी, मायी, योगी, संकुट, असंकुट, क्षेत्रज्ञ और अन्तरात्मा आदि नामों का उल्लेख किया गया है । '
१. जीव - आत्मा को जीव कहा जाता है, क्योंकि वह व्यवहार नय की अपेक्षा दस प्राणों से और निश्चय नय की अपेक्षा केवल ज्ञान और दर्शन रूप चित्प्राणों से वर्तमान काल में भी जीवित है, भूतकाल में जीवित था और अनागत काल में भी जीवित रहेगा । 2 द्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि आगमों में 'जीव' शब्द की यही व्याख्या उपलब्ध है । यद्यपि सिद्धों में पाँच इन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये प्राण नहीं होते हैं, किन्तु पूर्व जन्मों में वे इन प्राणों सहित जीवित थे, इसलिए वे भी जीव कहलाने योग्य हैं । इसके अलावा ज्ञान दर्शन भावप्राण होने से निश्चय नय से सिद्ध जीव हैं ही । "
२. प्राणी -- आत्मा को प्राणी भी कहा जाता है, क्योंकि स्पर्शनादि पाँच इन्द्रिय, मनोबल, वचनबल और कार्यबल ये तीन बल, आयु : एवं श्वासोच्छ्वास ये दस प्राण जीव में होते हैं । *
३. जन्तु - आत्मा को जन्तु भी कहा जाता है, क्योंकि वह अनेक बार चतुर्गतियों में तथा अनेक योनियों में जन्म धारण करके संसार में उत्पन्न होता है । इसलिए संसारी जीव ( आत्मा ) जन्तु कहलाता
१ - जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गली । वेदो विहू सयंभू य सरीरी तह माणवो ॥
सत्ता जंतू य माणी य माई जोगी य संकडो ।
असंकडो य खेत्तण्हू अंतरप्पा तहेव य ॥
-- षड्खंडागम धवला टीका, १|१|१|२|८१-८२ ।
२ - आदिपुराण ( महापुराण ), २४।१०४ ।
. ३ - द्रव्यसंग्रह, भाग २ | पंचास्तिकाय, गा० ३० । प्रवचनसार, गा० २।५५ । सर्वार्थसिद्धि, २८ । तत्त्वार्थराजवार्तिक, १|४|६ | जीवति प्राणान्धारयति इति जीवः मूलाराधना विजयोदया टीका, ११४० ।
२४-
- [क] नयद्वयोक्त प्राणाः सन्त्यान्येति प्राणी । गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), जीवप्रबोधिनी टीका, ३३६ ।
[ख] प्राणा दशास्य सन्तोति प्राणी
1- आदिपुराण ( महापुराण )
२४।१०५ ।
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