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बहुत कुछ समर्थन देती है। फिजियोलोजीकल साइकालोजी के अनुसार हमारे चिन्तन आदि मनोविकारों का मस्तिष्क अथवा स्नायुमण्डल की क्रियाओं से गहरा सम्बन्ध होता है । जैन दर्शन का आत्मवाद भी चित् और अचित् (कर्म) के बीच ऐसा ही सम्बन्ध मानता है। इस सिद्धान्त को मानने का अर्थ चेतनामय जीवन के आधारभूत आत्म-तत्त्व को नकारना नहीं है, जैसा कि चार्वाक ने किया है। विचार और संकल्प के भौतिक आधार को स्वीकार करना आत्मवाद के विरुद्ध नहीं है । आत्मवाद के परित्याग का अर्थ नैतिकता, धर्म और मोक्षवाद का परित्याग होगा । जो अन्ततः हमें भौतिकवाद के दुश्चक्र में फंसा देगा।
वैदिक दर्शन का कूटस्थ आत्मवाद भी जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण तत्त्वों की व्याख्या करने में असमर्थ है। बौद्धों का आत्मवाद भी सन्तोषप्रद नहीं है। वह व्यक्तित्व की एकता, स्मृति आदि की व्याख्या नहीं कर सकता। बौद्ध मत में यह भी समझना-समझाना कठिन हो जाता है कि दुःखों से किसे छुटकारा मिलता है और मुक्ति किसे मिलती है ? इस प्रकार हम देखते हैं कि तर्क की कसौटी पर निर्विकार कूटस्थ आत्मा की अवधारणा तथा विकारी क्षणिक आत्मा की अवधारणा कोई भी समीचीन नहीं है। इस दृष्टि से जैन दर्शन का परिणामी आत्मवाद का सिद्धान्त अधिक व्यावहारिक तथा तर्कसंगत है।
सांख्य, वेदान्त आदि इस पूर्व मान्यता को लेकर चलते हैं कि जो-जो विकारी है, वह अनित्य है। किन्तु यदि हम भौतिक जगत् को देखें तो यह मान्यता उतनी प्रामाणिक नहीं जान पड़ती। भौतिक जगत् के मूलभूत तत्त्व, जैसे विद्युत एवं अणु गतिशील एवं परिवर्तनशील होते हुए भी नित्य कहे जा सकते हैं। न्याय-वैशेषिक यह मानते हैं कि परमाणुओं में रंगादि का परिवर्तन होता है, फिर भी परमाणु नित्य समझे जाते हैं। इस दृष्टि से जैनदर्शन का यात्मवाद स्पिनोजा के सिद्धान्त के निकट है। स्पिनोजा मानता है कि विचार (Thought) और विस्तार (Extension) द्रव्य के धर्म या गुण हैं । नित्य द्रव्य के धर्म होने के नाते वे नित्य हैं। किन्तु प्रत्येक धर्म (Atribute) के प्रकार (Modes) भी होते हैं, जो निरन्तर परिणाम के कार्य हैं। विचार और विस्तार दोनों अपने को विभिन्न प्रकारों में अभिव्यक्त करते रहते हैं। स्पिनोजा का यह सिद्धान्त जैन दर्शन की आत्मा की ज्ञान-पर्यायों से समानता रखता प्रतीत होता है । . जैन दर्शन की यह मान्यता कि मोक्षावस्था में आत्मा निर्विकार हो जाती है असंगत नहीं है । जैन दर्शन हमारे अनुभवगम्य सचेतन जीवन के समझ में आने योग्य विवरण देता है । जैसा कि पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि परिवर्तनमय जीवन को व्याख्या के लिए किसी न किसी तत्त्व को विकारी मानना आवश्यक
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