________________
- १२ -
है । उपनिषद् सम्मत अद्वैत वेदान्त तथा सांख्य परिवर्तन का आश्रय अन्तःकरण और बुद्धि को मानते हैं, जबकि जैन दर्शन स्वयं आत्मा में पर्यायों की स्थिति स्वीकार करता है । यों जैन दर्शन भी द्रव्य रूप में आत्मा को ध्रुव या अविनाशी स्वीकार करता है । स्पिनोजा का द्रव्य भी जहाँ द्रव्य रूप में ध्रुव, नित्य एवं अपरिवर्तनशील है, वहाँ वह विचार और विस्तार नामक धर्मों के पर्यायों के रूप में परिवर्तनशील भी है । इस प्रकार जैन दर्शन की आत्म-तत्त्व-मीमांसा उनके अनेकान्तवाद सिद्धान्त के अनुरूप है ।
यद्यपि जैन दर्शन एवं स्पिनोजा के मत के विरुद्ध सांख्य- वेदान्त की ओर से यह कहा जा सकता है कि आश्रयभूत द्रव्य में गुणों का परिवर्तन स्वयं उस द्रव्य को परिवर्तनशील या विकारी बना देगा । किन्तु जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है - सांख्य वेदान्त की निष्क्रिय आत्मा भी हमारे चेतनामय जीवन की, जो सतत परिवर्तनशील है, उचित व्याख्या नहीं करती है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि न तो सांख्य एवं वेदान्त का निष्क्रिय ( कूटस्थ ) आत्मवाद और न बौद्धों का एकान्त क्षणिकवाद आत्मा के स्वरूप के सन्दर्भ में और न उसके बन्धन - मुक्ति आदि के सम्बन्ध में कोई सन्तोषजनक समाधान दे पाता है । यह तो जैन दर्शन की अनेकान्तवादी दृष्टि है जो एकान्त शाश्वतवाद और एकान्त उच्छेदवाद के मध्य आनुभविक स्तर पर एक यथार्थ समन्वय प्रस्तुत कर सकती है तथा नैतिक एवं धार्मिक जीवन की तर्कसंगत व्याख्या कर सकती है ।
नैतिक दृष्टि से भी जैन दर्शन का साधना - सिद्धान्त अद्वैत वेदान्त के ज्ञानमार्ग से अधिक सन्तोषप्रद है । जैन-दर्शन सम्यकदृष्टि और सम्यक्ज्ञान के साथ सम्यक्चरित्र को महत्त्व देता है और इस प्रकार नैतिक जीवन और अध्यात्म जीवन के बीच एक सामञ्जस्य स्थापित कर देता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org