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________________ दुःख, इच्छा, राग, द्वेष आदि मानें तो आत्मा अनित्य हो जायेगा। क्योंकि हर विकारी पदार्थ अनित्य होता है। इसी तर्क के बल पर शंकर आदि दार्शनिक जैन सम्मत आत्मा की धारणा की आलोचना करते हैं । पुनर्जन्म और मोक्ष की सम्भावना के लिए नित्य आत्मा की आवश्यकता है । इसलिए जैन-दर्शन की यह धारणा कि आत्मा अस्तिकाय-प्रदेशवान है और शरीर के अनुरूप उसका आकार घटता-बढ़ता है, वैदिक दार्शनिकों को विशेषतः सांख्य एवं वेदान्त के अनुयायियों को विचित्र और अग्राह्य जान पड़ती है। ___इसमें सन्देह नहीं कि उपरोक्त व्याप्ति को अर्थात जो-जो विकारी है वहवह अनित्य है, स्वीकार कर लेने पर जैन सम्मत आत्मा या जीव की नित्यता को स्वीकार करना कठिन हो जाता है। लेकिन सांख्य-वेदान्त की आत्मा सम्बन्धी धारणा भी निर्दोष नहीं है। प्रश्न यह है कि निगुण, निष्क्रिय आत्मा या पुरुष हमारे अनुभवगम्य चेतन जीवन की व्याख्या कैसे कर सकते हैं ? प्रश्न किया जा सकता है कि यदि सांख्य-वेदान्त की आत्मा को न माना जाय और चार्वाक तथा बौद्धों की भांति चैतन्य को जड़ तत्त्वों से उत्पन्न (मनोधर्म की भाँति) मान लिया जाय तो क्या हर्ज है ? यहाँ समस्या यह है कि पूर्णतः अनित्य आत्मवाद में बन्धन-मुक्ति एवं पुनर्जन्म की व्याख्या सम्भव नहीं है। ___इस दृष्टि से जैनदर्शन की आत्मा की अवधारणा उतनी असंगत नहीं है। आत्मा नित्य होते हुए भी विकारी या परिवर्तनशील और देशगत हो, यह मन्तव्य अनुचित नहीं जान पड़ता। देकार्त ने आत्मा का व्यावर्तक गुण चिन्तन शक्ति या सोचना माना था । जैनदर्शन के आलोचकों का कहना है कि सोचने की क्रिया देश में घटित नहीं होती। इसलिए हम दो विचारों या मनोदशाओं की लम्बाई, चौड़ाई, वजन आदि की तुलना नहीं करते। हाथो का प्रत्यय या विचार आकार में चींटी के प्रत्यय या विचार से बड़ा नहीं होता। इस दृष्टि से जैन-दर्शन की प्रदेशवान् आत्मा की धारणा दोषपूर्ण जान पड़ती है। इसी से सम्बन्धित जैन-दर्शन का यह सिद्वान्त कि कर्म पुद्गल आत्मा में प्रवेश कर जाता है या उससे चिपक जाता है-समीचीन नहीं जान पड़ता। अच्छे, बुरे कर्मों को परमाणुओं की गति से संकेकित करना समझ में आने वाली बात नहीं है। कर्म विशेष की अच्छाई, बुराई का सम्बन्ध अच्छे-बुरे संकल्पों से अधिक होता है न कि भौतिक गतियों मात्र से । तो क्या जैन दर्शन का सिद्धान्त एकदम ही निराधार है ? वस्तुतः ऐसा नहीं है। आधुनिक काल को फिजियोलोजिकल साइकालोजी उक्त सिद्धान्त को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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