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उपसंहार जैसा कि हमने भूमिका में कहा है भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व का विश्लेषण मुख्यतया मोक्षवाद की दृष्टि से किया गया है। इसके फलस्वरूप कुछ वैदिक दर्शनों में आत्मा और जीव का भेद करते हुए जीव-तत्त्व को कम महत्त्व दिया गया है । इन दर्शनों के अनुसार मोक्षावस्था में आत्मा जीव-भाव से मुक्त हो जाती है, किन्तु जैन दर्शन में आत्मा और जीव में भेद नहीं किया गया है।
जहाँ तक आत्मा के अस्तित्व का प्रश्न है, वैदिक तथा जैन दार्शनिकों ने प्रायः समान तर्क दिये हैं। चार्वाक तथा बौद्धों की आलोचना में भी उक्त दर्शनपद्धतियों में समानतायें हैं, किन्तु मोक्ष के स्वरूप एवं प्रक्रिया को लेकर वैदिकदर्शनों एवं जैन-दर्शन में दूरगामी विभिन्नताएँ हैं ।
अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में आचार्य शंकर ने केवल बौद्ध और जैन दर्शन का ही नहीं, अपितु वैशेषिक, सांख्य आदि हिन्दू दर्शनों का भी सशक्त खण्डन किया है। यों मोक्षवाद की दृष्टि से अद्वैत वेदान्त और सांख्य में पर्याप्त समानता है, दोनों यह मानते हैं कि बन्ध और मोक्ष आत्मा के मूल रूप को नहीं छूते, उनकी प्रतीति या अध्यास अविवेक के कारण है । यह मान्यता जैन दार्शनिक कुन्दकुन्द में भी किसो सीमा तक पायी जाती है । वे यह मानते हैं कि शुद्ध निश्चयनय से आत्मा बन्धन और मुक्ति के परे है। यद्यपि व्यवहारनय या वैभाविक दृष्टि से वे आत्मा के बन्धन-मोक्ष को स्वीकार करते हैं। शंकर ने सांख्य का खण्डन मुख्यतया उसके प्रकृति के कारणत्व को लेकर किया है। सांख्य जगत का कारण प्रकृति को मानता है, जबकि अद्वैत वेदान्त ब्रह्म को। किन्तु दोनों के मोक्षवाद में गहरी समानता है । बन्धन, मोक्ष, सुख-दुःखादि मनोदशायें मूल आत्मतत्त्व में नहीं हैं। इसे प्रमाणित करने के लिए सांख्य तथा वेदान्त तर्क देते हैं कि कोई वस्तु अपने स्वभाव को नहीं छोड़ सकती-उष्णता को छोड़कर अग्नि की सत्ता सम्भव नहीं है । यदि सुख-दुःख, बन्धनादि आत्मा के स्वाभाविक धर्म हैं तो वह उनसे कभी छुटकारा नहीं पा सकेगा। शंकर कहते हैं कि यदि ज्ञान बन्धन को काटता है तो बन्धन को अतात्त्विक मानना पड़ेगा । ज्ञान यथार्थ को प्रकाशित करता है, वह उसे नष्ट नहीं कर सकता । माया रूप बन्धन हो ज्ञान से नष्ट हो सकता है, असली बन्धन नहीं। इसलिए आत्मा को मूलतः शुद्ध-बुद्ध मानना चाहिए। दूसरे, यदि हम वैशेषिकों की भाँति आत्मा में सुख,
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