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________________ २८६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार कहा गया है, उसका तात्पर्य ही यह है कि सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के मार्ग हैं । कहा भी है-'वास्तव में, सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के हेतु हैं । जीवादि पदार्थों के श्रद्धान स्वभाव रूप ज्ञान का परिणमन होना सम्यग्दर्शन है। उन पदार्थों के स्वभाव स्वरूप ज्ञान का परिणमन करना सम्यग्ज्ञान है और उस ज्ञान का ही रागादि के परिहार स्वभाव स्वरूप परिणमन करना सम्यग चारित्र है।'' उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शनादि ज्ञान के ही परिणाम हैं, इसीलिए ज्ञान से मोक्ष होना बतलाया गया है। कुन्दकुन्दाचार्य ने कहीं-कहीं सम्यग्दर्शनादि के अतिरिक्त 'तप' को भी मोक्ष का कारण माना है। लेकिन तप का अन्तर्भाव चारित्र में हो जाने के कारण उमास्वामी आदि आचार्यों ने 'तप' का अलग से उल्लेख नहीं किया है। सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के परम कारण होने से ही जैन दार्शनिकों ने इन्हें रत्नत्रय कहा है । जैन-दार्शनिक मुक्तात्माओं का किसी शक्ति में विलीन होना नहीं मानते हैं । समस्त मुक्त आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता रहती है । मोक्ष में प्रत्येक आत्मा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से युक्त है, इसलिए इस दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है । क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक-बोधित बुद्ध-बोधित, ज्ञान, अवगाहन, अन्तर, अल्प-बहुत्व की अपेक्षा जो मुक्त आत्माओं में भेद की कल्पना की गयी है, वह सिर्फ व्यवहार नय की अपेक्षा से की गयी है, वास्तव में उनमें भेद करना सम्भव नहीं है। उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दार्शनिकों ने मोक्ष का स्वरूप और उसके प्राप्ति की प्रक्रिया का सूक्ष्म, तर्कसंगत और वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है। उपर्युक्त मोक्ष-प्राप्ति की प्रक्रिया द्वारा ही साधक अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। १. समयसार, आत्मख्याति टीका । २, दर्शनपाहुड, गा० ३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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