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बन्ध और मोक्ष : २८५
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प्रकार फूलों की शोभा का आनन्द नहीं ले सकता ।' कहा भी है कि क्रियारहित ज्ञान की तरह अज्ञानी की क्रियाएं भी व्यर्थ हैं । अग्नि से व्याप्त जंगल में अन्धे की तरह लंगड़ा व्यक्ति भी नहीं बच सकता है । दोनों के सम्मिलित प्रयास से ही उनकी प्राण रक्षा हो सकती है । अत: मात्र सम्यग्दर्शन, मात्र सम्यग्ज्ञान या मात्र सम्यक् चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है । कहा भी है "ज्ञान विहीन क्रिया व्यर्थ होती है और श्रद्धा रहित ज्ञान एवं क्रियाएं निरर्थक होती हैं ।" पूज्यपाद ने उपर्युक्त कथन को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र व्यष्टि रूप से मोक्ष के साधक नहीं हैं । रोगी का रोग दवा में विश्वास करने मात्र से दूर न होगा, जब तक उसे दवा का ज्ञान न हो और वह चिकित्सक के अनुसार आचरण न करे । इसी प्रकार, दवा की जानकारी मात्र से रोग दूर नहीं हो सकता है जब तक रोगी दवा के प्रति रुचि न रखे और विधिवत् उसका सेवन न करे। इसी प्रकार दवा में रुचि और उसके ज्ञान के बिना मात्र सेवन से रोग दूर नहीं हो सकता है । तभी दूर हो सकता है जब दवा में श्रद्धा हो, जानकारी हो और चिकित्सक के अनुसार उसका सेवन किया जाए । इसी प्रकार, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । 3
मूलाचार में एक उपमा देते हुए कहा गया है “जहाज चलाने वाला निर्माणक ज्ञान है, पवन की जगह ध्यान है, और जहाज चारित्र है । इस प्रकार ज्ञान, ध्यान और चारित्र, इन तीनों के मेल से भव्य जीव संसार - समुद्र से पार उतर जाते हैं ।"
एक बात यह भी है कि 'अनन्ताः सामायिक सिद्धाः' अर्थात् सामायिक चारित्र से अनन्त जीव सिद्ध हो गये हैं । इस कथन से भी सिद्ध होता है कि सम्यग्दर्शनादि का समष्टि रूप मोक्ष का कारण है क्योंकि मोक्ष समता भाव रूप चारित्र, ज्ञान से सम्पन्न आत्मा को ही तत्त्वश्रद्धानपूर्वक हो सकता है ।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जहाँ कहीं 'ज्ञान' मात्र को मोक्ष
१. उपासकाध्ययन, १।२१ ।
२. (क) तत्त्वार्थवार्तिक, १ १ ४९, पृ० १४ । (ख) सम्मतितर्कप्रकरण, २।६९ । ३. सर्वार्थसिद्धि, उत्थानिका, पृ० ३ ।
४. मूलाचार, गाथा ८९८ । और भी देखें गाथा ८९९ ।
५. समस्त पाप योगों से निवृत्त होकर अभेद समता और वीतराग में प्रतिष्ठित होना सामायिक चारित्र है ।
६, तत्त्वार्थवार्तिक १ । १।४९, पृ० १४ ।
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