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________________ २८४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार कि श्रद्धा से सकती है ।' आचार्यों का कथन है कि केवल मोक्ष के विषय में श्रद्धा रखने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि श्रद्धा तो मात्र रुचि की परिचायिका है । यदि श्रद्धा मात्र से मोक्ष की प्राप्ति मानी जाए, तो भूख लगने पर उसके प्रति श्रद्धा मात्र से भोजन पक जाना चाहिए । दूसरी बात यह है मोक्ष मानने से संयमादि धारण करना व्यर्थ सिद्ध हो जाएगा । रिक्त दीक्षा धारण करने मात्र से भी सांसारिक दोष नष्ट नहीं हो दीक्षा धारण के पहले और बाद में सांसारिक दुःख मौजूद रहते हैं । श्रद्धा से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है | इसके अति सकते हैं । अत: मात्र इसी प्रकार, मात्र सम्यग् ज्ञान से भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है । यदि सम्यग् ज्ञान मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति मानी जाएगी, तो सम्यग् ज्ञान प्राप्त होते ही साधक मुक्त हो जाएगा, फिर वह धर्मोपदेश आदि कार्य आकाश की तरह नहीं कर सकेगा ।" यदि कुछ संस्कारों के रहने के कारण पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने पर भी मोक्ष नहीं होता है, तो इसका यह स्पष्ट अर्थ है कि ज्ञान की प्राप्ति होने पर भी संस्कार नष्ट हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है । संस्कारों का क्षय चारित्र से हो सकता है, ज्ञान से नहीं । अन्यथा, ज्ञान-प्राप्ति के साथ ही संस्कारों का भी क्षय हो जाएगा, और धर्मोपदेश न होने की समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी । अत:, केवलज्ञान से भी मोक्ष नहीं होता है । सोमदेव सूरि ने केवलज्ञान को मोक्ष का हेतु मानने वालों की समीक्षा में कहा है कि ज्ञान से तो सिर्फ पदार्थों की जानकारी होती है । यदि पदार्थों के जानने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति होने लगे, तो पानी को देखते ही प्यास नष्ट हो जानी चाहिए, जो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । अतः ज्ञान मात्र से मोक्ष को प्राप्ति नहीं होती है । जो आचरण या चरित्र मात्र से मोक्ष मानते हैं उनका सिद्धान्त भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धा पुरुष जिस प्रकार छाया का आनन्द ले सकता है, उसी १. सर्वार्थसिद्धि, १1१ । २. उपासकाध्ययन, १, १७, पृ० ५ । ३. वही, १।१८ । ४. वही, १।१९ । ५. (क) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, उत्थानिका, आ ५२-५३ । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक १।१।५० । ६. तत्त्वार्थवार्तिक, १1१।५१-५३ । ७. उपासकाध्ययन, १२०, पृ० ६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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