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________________ बन्ध और मोक्ष : २८१ पर्यन्त समस्त पदार्थों को नित्यानित्य स्वभाव वाला बतलाया है।' आचार्य प्रभाचन्द्र का कहना है कि आनन्दरूपता के प्रतिबन्धक (रोकने वाले) कारणों के नष्ट हो जाने पर मोक्षावस्था में आत्मा ज्ञानसुखादि का कारण होता है । संसारी . अवस्था में भी विशिष्ट ध्यानादि में अवस्थित समवृत्ति वाले पुरुषों को आनन्दरूप अनुभव होता है । इसी प्रकार जैन दार्शनिक यह भी मानते हैं कि अनादि अविद्या के विलय से आनन्द-रूपता की अभिव्यक्ति होती है। ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मप्रवाह-रूप अनादि अविद्या के नष्ट होने पर अनन्तसुख, अनन्तज्ञानादि रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है।३ मुक्त आत्मा संवेद्य स्वभाव है या असंवेद्य ? : अद्वैत वेदान्ती मोक्ष को ज्ञानादि स्वरूप न मानकर केवल अनन्तसुखस्वरूप मानते हैं । अतः आचार्य विद्यानन्दी उनसे प्रश्न करते हैं कि मुक्त पुरुष अनन्तसुख का अनुभव करता है या नहीं ?" यदि मुक्ति में आत्मा सुख का अनुभव करती है, तो संवेद्य, अर्थात् जानने योग्य के रूप में अनन्तज्ञान की सिद्धि हो ही जाती है। क्योंकि अनन्तसुख के अनुभव होने का तात्पर्य यही है कि उसका संवेदन होता है । यदि अनन्तसुख का संवेदन नहीं होता है, तो फिर आत्मा के लिए अनन्तसुख संवेद्य होता है, यह कहना परस्पर विरोधी बात है। अतः, मोक्ष में संवेद्य स्वभाव आत्मा को मानने से सिद्ध है कि अनन्तसुख की तरह अनन्त ज्ञानादि की भी अभिव्यक्ति होती है। यदि वेदान्ती मुक्त आत्मा को संवेद्य रूप नहीं मानेंगे तो उसे आनन्दस्वरूप कहना भी असंगत होगा। मुक्त आत्मा को बाह्य पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं होता : अद्वैत वेदान्त का यह कथन भी ठीक नहीं है कि मुक्त आत्मा को अनन्त सुख का संवेदन होता है, किन्तु उसे बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता । विद्यानन्दी प्रश्न करते हैं कि मुक्तात्माओं को बाह्य पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं होता, बाह्य पदार्थों का अभाव होने से अथवा इन्द्रियों का अभाव होने से ? बाह्य पदार्थों का अभाव है इसलिए मुक्तात्मा को सुख का भी संवेदन (अनुभव) नहीं हो सकेगा। क्योंकि, बाहा पदार्थों की तरह सुख का भी अभाव मानना पड़ेगा, यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो ब्रह्म और सुख की सत्ता होने से द्वैत होने का प्रसंग आयेगा। अब १. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लोक ५ । २. प्रमेयकमलमार्तण्ड, ३२० । ३. वही। ४. अष्टसहस्री, पृ० ६९ । ५. वही। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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